रविवार, 18 सितंबर 2011

घुटने में अभी भी हेड़ेक है

बात पिछले से भी पिछले मंगलवार की है,यानि 6/9/11 की। दोपहर करीब दो बजे का समय था। रिमझिम फुहारें पड़ रही थीं सो उनका आनंद लेने के लिए पैदल ही घर की ओर निकल पड़ा। यही बात इंद्रदेव को पसंद नहीं आई कि एक अदना सा इंसान उनसे डरने के बजाय खुश हो रहा है बस उन्होंने उसी समय अपने सारे 'शावरों' का मुंह एक साथ पूरी तरह खोल दिया। अचानक आए बदलाव ने अपनी औकात भुलवा दी और बिना कुछ सोचे समझे मुझसे सौ मीटर की दौड लग गयी। उस समय तो कुछ महसूस नहीं हुआ पर रात गहराते ही घुटने में दर्द ने अपनी उपस्थिति दर्ज करवा दी। जिसने नजरंदाज रवैये के कारण दो दिनों की अनचाहा अवकाश लेने पर मजबूर कर दिया। इलाज करने और मर्ज बढने के मुहावरे के सच होने के बावजूद अपनी अच्छी या बुरी जिद के चलते मैने किसी "डागदर बाबू" को अपनी जेब की तलाशी नहीं लेने दी। जुम्मा-जुम्मा करते 12-13 दिन हो गये पर दर्द महाशय घुटने के पेचो-खम मे ऐसे उलझे थे कि निकलने का नाम ही नहीं ले रहे।

अब जैसा रिवाज है, तरह-तरह की नसीहतें, हिदायतें तथा उपचार मुफ्त में मिलने शुरु हो गये। अधिकांश तो दोनों कानों से आवागमन की सहूलियत देख हवा में जा मिले पर कुछ अपने-आप को सिद्ध करने के लिए डटे रह गये। सर्व-सुलभ उपायों को खूब आजमाया गया। 'फिलिप्स' कंपनी की लाल बत्ती का सेक दिया गया, अपने नामों को ले कर मशहूर मलहमें पोती गयीं, सेंधा नमक की सूखी-गीली गरमाहट को आजमाया गया पर हासिल शून्य बटे सन्नाटा ही रहा। फिर बाबा रामदेव की "पीड़ांतक" का नाम सामने आया, उससे कुछ राहत भी मिलती लगी, हो सकता है कि अब तक दर्द भी एक जगह बैठे-बैठे शायद ऊब गया हो, सही भी है उसे और भी घुटने-कोहनियां देखनी होती हैं खाली मेरे यहां जमे रहने से उसकी दाल-रोटी तो नहीं चलनी थी तो अब पूर्णतया तो नहीं पर आराम है।

जो होना था वह हुआ और अच्छा ही हुआ क्योंकि इससे एक सच्चाई सामने गयी। बहुत दिनों से बहुत बार बहुतों से बहुतों के बारे में सुनते रहे हैं कि फलाने का दिमाग घुटने में है। आज तक इस बात को हल्के-फुल्के अंदाज में ही लिया जाता रहा है। पर अब मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि यह मुहावरा यूंही नहीं बना था इसमें पूरी सच्चाई निहित थी। आप बोलेंगे कि वह कैसे? तो जनाब इन 12-13 दिनों में बहुत कोशिश की, बहुतेरा ध्यान लगाया, हर संभव-असंभव उपाय कर देख लिया पर एक अक्षर भी लिखा ना जा सका। जिसका साफ मतलब था कि यह सब करने का जिसका जिम्मा है वह तो हालाते-नासाज लिए घुटने में बैठा था। इस हालात में वह अपनी चोट संभालता कि मेरे अक्षरों पर ध्यान देता ?

9 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

स्वास्थ्य लाभ शीघ्र करें।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

दिल उछल कर गले तक आने की बात तो सुनी थी, पर हेड घुतने तक चला जाय.... भई वाह :)

रविकर ने कहा…

सच ||
बहुत ही खूबसूरत प्रस्तुति ||
बधाई ||

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

गजब उस्ताद जी गजब.

रामराम.

P.N. Subramanian ने कहा…

बहुत सुन्दर. घुटनों का खासा ख्याल रखें अन्यथा बहुत कष्ट देने की क्षमता रखते हैं.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आप अपना ख्याल रखें!

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

घटने का सम्बन्ध दिल से भी है, सिर्फ दिमाग से नहीं. :)

Chetan ने कहा…

Ghutane kaa khaas khayaal rakhen. Takaliif ko najar andaaj karanaa thiik nahii hotaa.

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

आप सब का बहुत-बहुत हार्दिक धन्यवाद।

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