रविवार, 28 अगस्त 2011

अब तो यही प्रार्थना है कि यह लहर सतत बहने वाली धारा बन जाए.

चलिए अंत भला सो सब भला। भले ही पूर्णरुपेण न हो फिर भी अन्ना का अनशन टूटा, देश की जान में जान आई। एक राहत की ठंडी बयार तो मिली। ऐसा भी नहीं है कि सोमवार से पूरा देश भ्रष्टाचार से मुक्त हो जाएगा, सारे लोग इमानदार हो जाएंगे, सरकारी कर्मचारी 'चाय पानी' से तौबा कर लेंगे, दफ्तरों में चढावा बंद हो जाएगा, पुलिस वाले चौथ लेना बंद कर देंगे, अकस्मात यात्रा के योग पर लोग बर्थ की चिंता से मुक्ति पा लेंगे, स्कूल-कालेजों में डोनेशन लेना पाप समझा जाएगा, किसान सुखी हो जाएंगे। पर फिर भी दिनों-दिन कुव्यवस्था के कसते शिकंजे पर कुछ तो रोक लगेगी। कहीं न कहीं लोगों के मन पर एक डर तो हावी रहेगा। कहीं न कहीं मजबूरों को एक सहारे का आसरा तो रहेगा। यदि कदाचार में पांच प्रतिशत भी कमी हो पाई तो यह एक उपलब्धी ही होगी।

देखते-देखते कुछ ही सालों में कितनी दबंगता आ गयी थी रिश्वतखोरी में। पहले लुके-छिपे, मेज के नीचे से, पान की दुकान या चाय के बहाने बाहर जा या फिर तीसरे के माध्यम से यह काम किया जाता था पर अब तो सीधे-सीधे दसियों लोगों की मौजूदगी मे बिना किसी डर-भय, लाज-संकोच के रकम खीसे में डाल ली जाती है, वह भी इस अंदाज से गोया सामने वाले पर एहसान कर रहे हों।

पर जो भी इन 10-15 दिनों में हुआ वह ऐसे ही नहीं हो गया। दिल्ली में घटित हो रहे सारे घटनाक्रम पर देश भर की करोडों आंखे टकटकी लगाए देख रही थीं एक निहत्थे, भूखे-प्यासे वृद्ध के मनोबल को। एक ऐसे इंसान को जो अपने लिए नहीं देश की जनता के लिए आ ड़टा था मैदान मे। बिना किसी ड़र के ललकार रहा था, धनबल, बाहूबल से सक्षम उन लोगों को जो अपने आप को देश और देशवासियों के भाग्यविधाता होने की गलतफहमी पाल चुके थे। शीशा दिखा रहा था उनको। उसके व्यक्तित्व में आभास होने लगा था, जन-जन को, गहन अंधकार के विरुद्ध कमर कसे एक दीए का। इसीलिए लाखों हाथ उठ गये, ओट बन कर, उसे आने वाले सरकारी अंधड़ से बचाने के लिए।

इस सरकार का अजीब सा ही रवैय्या रहा है समस्याओं से निपटने का। इंतजार करो और करवाओ, मनोबल तोड़ो, फूट ड़ालो, भड़काओ और फिर अशांति का हौव्वा खड़ा कर अंदर भिजवा दो। यह तरीका कारगर हो चुका था बाबा रामदेव के समय। इस बार भी वही हथकंड़ा अपनाया गया, अहम और ऐंठ से भरे गिने-चुने अदूरदर्शी सलाहकारों द्वारा। पर वे बाबा और अन्ना का भेद नहीं समझ पाए, अंदाजा नहीं लगा पाए जनता के अटूट इरादों का जिसने इन नये मुल्लाओं के हाथों के तोते उड़वा दिए। क्या नहीं किया इन लोगों ने, कौन सा हथकंड़ा नहीं अपनाया। साम-दाम-दंड़-भेद सारे कुचक्र रच कर देख लिए। पर इनका हर वार "बूमरैंग" बन इन्हें ही घायल करता रहा। ये अकेले ही नहीं थे चक्रव्यूह रचने में और भी कुछ लोग इनके साथ अपनी दुकान चलाने का मौका समझ रहे थे इस वक्त को। किसी को यह सब धर्म के खिलाफ लग रहा था तो कोई इसे सवर्णों का जमावड़ा सिद्ध करने की मूर्खता कर रहा था। पर इस अनूठे यज्ञ में जुटे हर वर्ग, हर जाति, हर धर्म के लोगों ने उनकी पल भर में बोलती बंद करवा दुकानें बढवा दीं। क्योंकि जिस कुव्यवस्था के विरुद्ध यह जन-जागरण था उसका कोई धर्म, कोई जाति या कोई वर्ग नहीं होता।

अब तो यही प्रार्थना है कि यह जो लहर उठी है वह सतत बहने वाली धारा बन जाए।

8 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जो भी हो, देशहित व सर्वहित पर हो।

Sawai Singh Rajpurohit ने कहा…

चलिए अंत भला सो सब भला। बहुत ही सच्ची और सही बात !
बहुत सुन्दर्
बधाई एवं शुभकामनाएं 1 ब्लॉग सबका ... की तरफ से

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

अब फिर वही ढर्रे पर गाडी चलेगी:(

G.N.SHAW ने कहा…

फिर भी दाल में कुछ काला है , से इंकार नहीं किया जा सकता ! हमें सार्थक परिणामो के इंतजार करनी चाहिए - मतदान तक !

समयचक्र ने कहा…

श्री अन्नाजी ने देश और समाज को एक नई दिशा और नई उर्जा प्रदान की है ...सतत यह धारा बहती रहे ...

P.N. Subramanian ने कहा…

हमारी भी कामना है, यह धारा बहती रहे.

anshumala ने कहा…

@यदि कदाचार में पांच प्रतिशत भी कमी हो पाई तो यह एक उपलब्धी ही होगी।
बिल्कुल सहमत हूं | किन्तु कुछ लोग तो इसी पर अड़े है की यदि १००% नहीं हुआ तो लोकपाल का क्या फायदा |

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

अंशुमालाजी, यही तो सोचना चाहिए कि जो जहर नस-नस में व्याप्त है वह कुछ दिनों में तो खत्म नहीं हो पाएगा। लोगों से एक छोटी सी सिगरेट तो छुटती नहीं तो मुफ्त की आमदनी इतनी जल्दी कौन छोड़ना चाहेगा। समय लगे पर बदलाव तो आ जाए।

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