गुरुवार, 26 मई 2011

इस आग पर रोटियां नहीं सिकतीं !!!

मे के लम्बे दिनों का महीना साक्षी रहा दसियो घरों में छाने वाले अंधेरे का। इस महीने भर में माओवादियों से हुई झड़पों में छत्तीसगढ और उससे लगे आस-पास के इलाकों में पचास से ज्यादा लोगों ने अपनी जान गवांई।
अब मीड़िया में भी एक-दो मौतों का जिक्र उपेक्षित ही रहता है। एक साथ हुई बीस-पच्चीस शहादतें ही कुछ हलचल पैदा कर पाती हैं। वे भी देश के प्रमुख दैंनिकों के मुख्य पृष्ठों पर कभी-कभार ही जगह बना पाती हैं।

तथाकथित मानवाधिकार के स्वयंभू पैरोकार भी पुलिस या सेना के जवानों की मौत पर नजर नहीं आते ना ही उनकी ओर से कोई बयान जारी किया जाता है। उनकी रोटियां तो सिकती हैं उग्रवादियों के हताहत होने पर। तब फोटो खिंचवाई जाती हैं, हवाई उड़ाने भरी जाती हैं, बयान जारी किए जाते हैं। देश भर की खबरों में छाने का कोई मौका हाथ से तो क्या आस-पास से भी गुजरने नहीं दिया जाता।

सवाल यह उठता है कि ये जवान या पुलिस वाले क्या इंसान नहीं होते? क्या इनका परिवार नहीं होता? क्या इनके बूढे लाचार माँ-बाप को उनकी उम्र के इस पड़ाव पर देख-रेख या भरण-पोषण की आवश्यकता नहीं होती? क्या इनके बच्चों को अपने पिता के प्यार, स्नेह की जरूरत नहीं होती? क्या इनकी पत्नियों के शरीर में दिल नहीं होता? क्या इनकी कोई जाति दुश्मनी होती है उग्रवादियों से? क्या अपना फर्ज निभाना कोई गुनाह है? यदि जवाब नहीं है तो क्यों नहीं अग्निवेशों, अरुंधतियों की हमदर्दी इनके साथ भी होती? क्यों ऐसे मौकों पर उनकी इंसानियत, मानवता की दुहाई दोमुंही हो जाती है?

पता नहीं कैसे उनका दिल गवारा करता है इंसान-इंसान में फर्क करने का। ऐसे लोग अपनी टुच्ची राजनीति के तहत कौन सी मानवता का भला करते हैं? किसका हित साधते हैं? कैसा फर्ज पूरा करते हैं? कभी-कभी तो लगता है कि ये सब कठपुतलियां हैं जिनकी ड़ोर किसी और के हाथों में है। जो भी हो रहा है वह सब सोची समझी साजिश के तहत हो रहा है। अपनी नाकामियों को छुपाने के लिए, विरोधियों को नीचा दिखाने या हटाने के लिए घिनौना रक्तरंजित आयोजन किया जा रहा है, बिना इस अंजाम को जाने कि ऐसी हरकतों से ही भस्मासुरों का जन्म होता है जिससे खुद को बचा पाना भी दूभर हो जाता है।

6 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!

राज भाटिय़ा ने कहा…

जब भी यह कुते वोट मांगने आये तो जनता को चाहिये इन के मुंह पत थुक दे...

पी.एस .भाकुनी ने कहा…

सवाल यह उठता है कि ये जवान या पुलिस वाले क्या इंसान नहीं होते? क्या इनका परिवार नहीं होता? क्या इनके बूढे लाचार माँ-बाप को उनकी उम्र के इस पड़ाव पर देख-रेख या भरण-पोषण की आवश्यकता नहीं होती? क्या इनके बच्चों को अपने पिता के प्यार, स्नेह की जरूरत नहीं होती? क्या इनकी पत्नियों के शरीर में दिल नहीं होता?

कौन देगा इन प्रश्नों का उतर ? क्या तथाकथित मानवाधिकार के स्वयंभू पैरोकार ? या फिर निरंतर टी .आर. पी. की जुगत में आँखें गडाए हमारा मिडिया ? या फिर तथाकथित धर्मनिरपेक्ष समाजसेवी ? एक सोचनीय विषय पर आपने ध्यानाकर्षण किया है ,
आभार..................................

Chetan ने कहा…

Sab gandi raajniitii kii upaj hai

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

राज जी, कोई बड़ी बात नहीं है कि आने वाले दिनों में ऐसा हो जाए।
जूते मारने तो शुरु हो ही गये हैं।

वीना श्रीवास्तव ने कहा…

अच्छी प्रस्तुति....

विशिष्ट पोस्ट

विडंबना या समय का फेर

भइया जी एक अउर गजबे का बात निमाई, जो बंगाली है और आप पाटी में है, ऊ बोल रहा था कि किसी को हराने, अलोकप्रिय करने या अप्रभावी करने का बहुत सा ...