सोमवार, 7 मार्च 2011

बेसब्रों की लार ने सदन के गलीचों को गीला करना शुरू कर दिया है.

खाए-पीए को हजम करने तथा फिर अपनी व्यक्तिपूजक, लघुस्मृति वाली जनता के बीच जाने के पहले कुछ मुद्दों को तलाशने में लगाने वाले जरूरी वक्त को हासिल करने के लिए, हर मौके को लपकने की आदत वाले "देर मत कर" नामी पारिवारिक दल ने केंद्र से 'एच्छिक सेवानिवृति' लेने की इच्छा जाहिर कर दी है. सही भी है वहां और बने रह कर किसी भी तरह का फ़ायदा अब नजर नहीं आ रहा था. इसके अलावा घर आ चुके "फार्चून" से आने वाली फसल को भी लहलहाने की कोशीश करनी थी.
इधर केंद्र को इसलिए चिंता नहीं है क्योंकि आसपास जीभ लपलपाते या पेड़ों की फुनगियों पर अपनी चोंच तीक्ष्ण करते मौकापरस्तों की उसे पूरी गिनती और जानकारी है. जो पता नहीं कब से छींका टूटने और ऊंट की करवट का बेसब्री से इन्तजार कर रहे हैं. अभी स्तीफे आए भी नहीं हैं पर बेसब्रों की लार ने टपक-टपक कर सदन के गलीचों को गीला करना शुरू कर दिया है. वैसे नाटक में इस बार भी वही "कैरेक्टर आर्टिस्ट" हैं जो हर बार, बार-बार आजमाए जा चुके हैं. अनेकों बार पीठ लाल हुई है. पर कुछ मजबूरी है, कुछ आदत है, कुछ खुशफहमी है, कुछ पूर्वाग्रह हैं, कुछ गरूर है कि हमारे बिना इस बदकिस्मत देश को और कोई घसीट नहीं सकता. मुई कुर्सी का यही तो करिश्मा है कि अच्छे, भले, कर्मठ इंसान को भी "मजबूर" बना कर छोड़ती है. वैसी ही मजबूरी जैसी ट्रेनों में लिखी रहती हैं कि आप अपने सामान की हिफाजत खुद करें. फर्क सिर्फ इतना है कि यहाँ सामान की जगह यहाँ आपकी रोजमर्रा की जिन्दगी है.
इधर जनता तमाशा देख रही है, समझ रही है उन मजबूरियों को जो दूरियों को नजदीकियों में बदलने में ही अपना वक्त जाया कर रही हैं.

7 टिप्‍पणियां:

संतोष पाण्डेय ने कहा…

kya baat hai. ek kadvi sachchai.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

शर्मा जी!
आपने बहुत सुन्दर और सशक्त पोस्ट लिखी है!
महिला दिवस की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
--
केशर-क्यारी को सदा, स्नेह सुधा से सींच।
पुरुष न होता उच्च है, नारि न होती नीच।।
नारि न होती नीच, पुरुष की खान यही है।
है विडम्बना फिर भी इसका मान नहीं है।।
कह ‘मयंक’ असहाय, नारि अबला-दुखियारी।
बिना स्नेह के सूख रही यह केशर-क्यारी।।

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत ही सटीक बात कही आपने.

रामराम.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

बात सटीक है..

Chetan Sharma ने कहा…

ab to janata ko hi kuchh karana hoga, sabak sikhane ke liye.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

मजबूर है तो क्या ... कुर्सी तो मजबूत है ना :)

Patali-The-Village ने कहा…

बहुत ही सटीक बात कही आपने| धन्यवाद|

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