बुधवार, 17 नवंबर 2010

राधाजी के मायके "बरसाना" जाएं तो मंदिर तक गाड़ी से नहीं सीढियों से पहुंचें

पहले कभी “राधा जी” के मायके बरसाना जाना नहीं हो पाया था। इस बार वृंदावन जाने का मौका मिला तो बरसाना देखने की हसरत पूरी हो गयी। पर वृंदावन से बरसाना जाने वाली सडक गाड़ी चालक के लिए किसी सजा से कम नहीं है, यदि गति 15 से 20 की भी मिल जाती थी तो लगता था कि सडक ठीक है। फिर वह सडक भी बरसाने के पिछली तरफ जा कर मिलती है। गांव की तंग गलियों में मंदिर का रास्ता पूछते-पूछते आगे बढते हुए पता चला कि पहाड़ी पर बने मंदिर के लिए दो रास्ते हैं एक पैदल पथ और दूसरा वाहनों के लिए। वैसे तो मेरा विश्वास है कि धार्मिक स्थलों पर पैदल ही जाना चाहिए पर समय के टोटे के कारण गाड़ी वाले मार्ग को प्राथमिकता दी गयी। और यही गल्ती हो गयी। जिसका बाद में जा कर एहसास हुआ। तो गाड़ी धीरे-धीरे संकरी गलियों को पार कर एक ऐसी जगह आ गयी जहां एक उबड़-खाबड़, ऊंचे-नीचे बेतरतीब पत्थरों से ढका, करीब सात-आठ फुट चौड़ा, दोनों ओर दो-ढाई फुट की उचाईयों से घिरा, पालिथिन के कचड़े, धूल-मिट्टी तथा घरों के कूड़े से भरा एक सर्पीला सा मार्ग जैसा कुछ पहाड़ी पर ऊपर उठता जा रहा था। पता चला कि यही वाहन पथ है। इतने में गांव के बच्चों ने कार को घेर लिया और आवाजें आने लगीं ‘गाड़ी रोकूं ? गाड़ी रोकूं ? ज्ञान में इजाफा हुआ कि उस नाले रूपी मार्ग से चूंकी एक बार में एक ही गाड़ी निकल सकती है इसलिए नीचे से या ऊपर जाकर गाड़ियों को रास्ते में दाखिल होने के पहले एक छोर खाली रखना होता है नहीं तो बीच में फंस जाने पर बहुत दिक्कत होती है। बच्चों को इस काम में मजा आता है ऊपर से तीस-चालीस रुपयों की कमाई हो जाती है। खैर नुकीले पत्थरों पर गाड़ी के दुख में दुखी होते ऊपर प्रांगण में जा पहुंचे।

राधा मंदिर एक विशाल हवेली में स्थित है जो राधाजी के बचपन, किशोरावस्था की साक्षी है। मुख्य भवन दिवार से घिरा हुआ है, जिनमें कमरे बने हुए हैं उनमें बहुत से परिवारों का निवास है जो अपने आप को राधा जी के पिता वृषभान जी का वंशज बताते हैं। भवन में प्रवेश करने पर एक बड़ा सा हाल है जिसमें राधा-कृष्ण की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। शाम घिर रही थी दिल्ली वापस लौटना था सो कुछ भी मालूमात हासिल नहीं कर पाया। माथा टेक उसी सर्पीले मार्ग से वापसी शुरु हुई। इस बार ऊपर पहले से पहुंची पांच एक गाड़ियां और थीं। जैसे ही समतल पर आने को हुए सामने की दो गाड़ियों के रुकने से सारा काफिला रुक गया। पांच मिनट, दस मिनट हो गये, मैं अपने लिए रास्ता बनाने वाले बच्चे को साथ ही ले आया था उसे ही कहा कि क्या हुआ है देख कर आए उसने बताया कि सामने ‘पशुओं’ को पानी पिला रहे हैं। मुझसे रहा नहीं गया। सामने जाकर देखा एक घुंघट धारी महिला घर के बाहर बाल्टी में भैंसों को पानी दे रही है। जिससे वह गली रुपी रास्ता बंद हो गया है। उसे वहीं के एक आदमी ने कहा भी कि गाड़ी निकल जाने दे पर उसने जैसे सुना ही नहीं। वहीं और कहीं से अपनी सायकिल पर आता एक और माणस खड़ा हो हमारे तमाशे का आनंद ले रहा था। उसे ही मैंने कहा कि इनसे कहो कि दो मिनट भी नहीं लगेंगे हमें निकल जाने दें फिर बिना किसी चिल्ल-पौं के पानी पिलवा दें। वह उस महिला को कनखियों से देख बोला जी पशु प्यासे हैं पहले वे पानी पीयेंगे। मेरे दिमाग में कुछ गर्म-गर्म हुआ पर फिर भी संयत स्वर में मैंने उसी से कहा (महिला तो निर्विकार थी जैसे वहां हो ही नहीं) कि बाहर से यहां आने वाले लोग आपके मेहमान जैसे हैं। वैसे भी इधर कम ही लोग आते हैं ऊपर से तुम्हारी ऐसी हरकतों से तो गांव की बदनामी ही तो होगी। अच्छे बर्ताव का अनुभव ले कर जाएंगे तो तुम्हारा और गांव का भला ही होगा। गाड़ियां निकल जाएंगी तो बिना शोर-शराबे के निश्चिंत हो पशू भी आराम से पानी पी सकेंगे। सिर्फ जिद के कारण तमाशा मत बनाओ। शायद राधाजी ने उसको सद्बुद्धी दी उसने उस महिला को कुछ कहा और भैंसें किनारे कर दी गयीं। सबने राहत की सांस ली पर आधा घंटा तो खराब हो ही गया था। इस बार लौटने का रास्ता दूसरा था जो मथुरा से करीब 40 की मी पहले मुख्य मार्ग में आकर मिलता है। साफ सुथरी बढिया सडक फिर भी घर पहुंचते-पहुंचते 9 बज ही गये थे।

4 टिप्‍पणियां:

समयचक्र ने कहा…

बहुत सुन्दर जानकारी दी है आपने ... एक बार जरुर बरसाने जाने की अपनी हसरत पूरी करूँगा... आभार

वाणी गीत ने कहा…

वृन्दावन तक तो हो आये ...बरसना धाम बाकी है ...
तस्वीरों की कमी खली ...!

PN Subramanian ने कहा…

आखिरकार राधाजी के मैके हो ही आये. दर्शनार्थियों के साथ अच्छा सलूक नहीं है. लगता है वह कोई प्राइवेट प्रोपर्टी है.

बाल भवन जबलपुर ने कहा…

हम सच्ची कहें
किसी ऐसे वैसे की ससुराल नहीं कृष्ण जी की है

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