बुधवार, 29 सितंबर 2010

प्रख्यात फ़िल्म अभिनेता मोतीलाल को सिर्फ एक सिगरेट के कारण फ़िल्म छोड़नी पड़ी थी.

पहले के दिग्गज फिल्म निर्देशकों को अपने पर पूरा विश्वास और भरोसा होता था। उनके नाम और प्रोडक्शन की बनी फिल्म का लोग इंतजार करते थे। उसमे कौन काम कर रहा है यह बात उतने मायने नहीं रखती थी। कसी हुई पटकथा और सधे निर्देशन से उनकी फिल्में सदा धूम मचाती रहती थीं। अपनी कला पर पूर्ण विश्वास होने के कारण ऐसे निर्देशक कभी किसी प्रकार का समझौता नहीं करते थे। ऐसे ही फिल्म निर्देशक थे वही। शांताराम। उन्हीं से जुड़ी एक घटना का जिक्र है :-

#हिन्दी_ब्लागिंग 
उन दिनों शांतारामजी डा. कोटनीस पर एक फिल्म बना रहे थे "डा. कोटनीस की अमर कहानी।" जिसमें उन दिनों के दिग्गज तथा प्रथम श्रेणी के नायक मोतीलाल को लेना तय किया गया था। मोतीलाल ने उनका प्रस्ताव स्वीकार भी कर लिया था। शांतारामजी ने उन्हें मुंहमांगी रकम भी दे दी थी।
शांताराम 
पहले दिन जब सारी बातें तय हो गयीं तो मोतीलाल ने अपने सिगरेट केस से सिगरेट निकाली और वहीं पीने लगे। शांतारामजी बहुत अनुशासन प्रिय व्यक्ति थे। उनका नियम था कि स्टुडियो में कोई धुम्रपान नहीं करेगा। उन्होंने यह बात मोतीलाल से बताई और उनसे ऐसा ना करने को कहा। मोतीलाल को यह बात खल गयी, उन्होंने कहा कि सिगरेट तो मैं यहीं पिऊंगा। शांतारामजी ने उसी समय सारे अनुबंध खत्म कर डाले और मोतीलाल को फिल्म से अलग कर दिया। फिर खुद ही कोटनीस की भूमिका निभायी।
मोतीलाल 
इक्के-दुक्के निर्देशक को छोड़ क्या ऐसी हिम्मत है आज किसी निर्माता या निर्देशक में ?

7 टिप्‍पणियां:

समयचक्र ने कहा…

अब तो अभिनेता वगैर सिगरेट के हीरो ही नहीं लगता ....

राज भाटिय़ा ने कहा…

पहले लोग इज्जत के लिये पेसॊ को भी ठोकर मार देते थे, ओर आज लोग पेसॊ के लिये इज्जत को भी ठोकर मार रहे है, बस फ़र्क इतना सा हे ज्यादा कुछ नही,
बहुत सुंदर जानकारी

anshumala ने कहा…

janakari ke lie dhanyavad

बाल भवन जबलपुर ने कहा…

ऐसा भी होता था...?

मनोज कुमार ने कहा…

नई जानकारी मिली! बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
देसिल बयना-नदी में नदी एक सुरसरी और सब डबरे, करण समस्तीपुरी की लेखनी से, “मनोज” पर, पढिए!

विवेक रस्तोगी ने कहा…

राज जी से सहमत...

खैर सिगरेट अच्छी चीज होती भी नहीं है।

मनोज कुमार ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
चक्रव्यूह से आगे, आंच पर अनुपमा पाठक की कविता की समीक्षा, आचार्य परशुराम राय, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!

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