गुरुवार, 25 मार्च 2010

तीन टायलेटी चुटकले।

चलती गाड़ी में अपने शरीर का कोई अंग बाहर न निकालें :)

1, ट्रेन में बैठे श्रीमान जी काफी परेशान थे। बार-बार कसमसा कर पहलू बदल रहे थे। चेहरे पर बैचैनी साफ झलक रही थी। उनकी हालत देख सहयात्री ने पूछा, परेशान लग रहे हैं, कोई तकलीफ है?

हां, टायलेट जाना है। श्रीमान जी ने जवाब दिया।

तो जाते क्यों नहीं? साथ वाले ने पूछा ।

ट्रेन जो चल रही है। श्रीमान जी बोले।

तो उससे क्या होता है? सहयात्री कुछ समझ ना पाया।

वहां लिखा है, चलती गाड़ी मे अपने शरीर का कोई अंग बाहर ना निकालें। श्रीमान जी ने अपनी परेशानी का कारण बताया।


2, बंता ट्रेन में टायलेट जाकर लौटा तो बदहवास था। सहयात्री ने पूछा, क्या हो गया?
बंता बोला टायलेट के छेद से मेरा पर्स नीचे गिर गया।
अरे, तो चेन खींचनी थी ना। सहयात्री ने कहा।

दो बार खींची पर हर बार पानी बहने लगा।



3, रेलगाड़ी में एक बुजुर्गवार अपनी सीट से बार-बार उठ कर टायलेट जा रहे थे। कुछ परेशान भी थे। सहयात्री बार-बार उनके आने-जाने से तंग आ चुका था। अंत में उसने चिढ कर कह ही दिया, कि बाबा आपको "चैन" नहीं है?

है तो सही बेटा पर खुल नहीं रही है।

बुधवार, 24 मार्च 2010

सचिन इसीलिए कुछ अलग सा है.

आई पी एल नामक क्रिकेट के तमाशे में सम्मिलित टीमों के नामों पर गौर किया है आपने?

चलिए मान लेते हैं कि ऐसी हुल्लड़ भरी नौटंकियों में भाग लेना है तो नाम भी ऐसे, वैसे, कैसे, कैसे ही होंगे, लोगों को रोमांचित व उत्तेजित करने के लिए, बिल्कुल WWF की कुश्तियों की तरह।

आईए जरा नामों पर गौर करें :- (लिप्यान्तरण पर ज्यादा ध्यान न दें)

1, Chennai Super Kings :- राजाओं के राजा।

२, Bangalore Royal Challengers :- शाही चुन्नौति पेश करने वाले।

3, Deccan Chargers :- तेज तर्रार युद्ध के घोड़े।

4, Delhi Dare Davils :- खतरनाक शैतान।

5, Kings XI Punjab :- राजाओं का जमावड़ा।

6, Kolkata Knight Riders :- नाईट की उपाधि प्राप्त घुड़सवार।

7, Rajasthan Royals :- राजसी लोगों का समूह।

8, Mumbai Indians :- मुम्बई के भारतीय या हिंदोस्तानी।

मुम्बई की टीम भी कोई ऐसा नाम रख सकती थी जैसे - मुम्बई डान, मुम्बई मोनार्क, मुम्बई एलीट, मुम्बई थ्रस्टर या ऐसा ही कुछ।

पर जैसा उसका कप्तान है, धीर, गंभीर, शांत, मितभाषी। वैसा ही उसकी टीम का नाम भी है। जाहिर है नाम रखते समय कप्तान की सहमति भी जरूर ली गयी होगी।

पर इस तमाशे, नौटंकी की चकाचौंध में भी तेंदुलकर ने अपने देश और देशवासियों को याद रखा। यही उसका बड़्ड़पन है, उसकी महानता है। यही सोच उसे औरों से कुछ अलग करती है।

हे श्रीराम, आज हमें तुम्हारा जन्मदिन नहीं, तुम्हारा सान्निध्य चाहिए.

हे श्री राम,
प्रणाम।

आज तुम्हारा जन्म दिवस है। चारों ओर उल्लास छाया हुआ है। भक्तिमय वातावरण है। पूजा अर्चना जोरों पर है। पर यह सब भी आज के भौतिक युग की बाजारू संस्कृति का ही एक अंग है। एक बहुत छोटा सा प्रतिशत ही होगा जो सच्चे मन से तुम्हें याद कर रहा होगा। आधे से ज्यादा तो आज के अवकाश से खुश हैं। कुछ लोगों की दुकानदारी है और कुछ लोगों की तुम्हारे नाम की आड़ में अपनी रोटी सेकने का बहाना।

तुम्हारे जन्म दिवस का तो सब को याद है, पर तुम्हारे आदर्शों, तुम्हारी मर्यादा, तुम्हारे चरित्र, तुम्हारी बातों का इस देश से तिरोहण होता जा रहा है।
तुमने माँ-बाप की आज्ञा शिरोधार्य की, आज के माँ-बाप ड़रे रहते हैं कि ऐसा कुछ ना हो जाए जिससे उनके कुलदीपक को कुछ नागवार गुजरे। माँ-बाप की बात मानना तो दूर उनकी बात सुननी भी बच्चे गवारा नहीं करते। तुमने नारी के सम्मान करने की बात कही तो आज यहां हालात ऐसे हैं कि जन्म से पहले ही उन्हें परलोकगमन की राह दिखा दी जाती है। नारी उद्धार के पीछे अपना उद्धार करने पर कटिबद्ध हैं आज के समाज के कर्णधार। तुमने भाईयों के लिए सर्वत्याग किया आज अपने लिए लोग भाईयों को त्यागने में नहीं हिचकते। तुमने अपनी शरण में आनेवाले का सदा साथ दिया चाहे उसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़ी हो पर आज मुसीबत में पड़े लोगों से भी कीमत वसूली जाती है। तुमने दीन-हीन-दुखियारे-पिछड़ों को सदा गले लगाया, उन्हें सम्मान का हकदार बनाया। आज ऐसे ही लोगों के कंधों का सहारा लेकर मतलबपरस्त अपनी पीढीयों का भविष्य सवारने में लगे हैं। तुमने धन-दौलत-एश्वर्य को सदा हेय समझा आज यही प्रतिष्ठा का माध्यम हैं। तुम्हारे समय में तो एक ही रावण था जिसे मार कर तुमने इस धरा को भयमुक्त किया था। पर आज तो घट-घट में रावण विराजमान हैं जो अपनी अभेद्य लंकाओं में बैठे-बैठे जाने कितनी सीताओं को अपमानित, लांछित तथा प्रताड़ित करने के बावजूद समाज में प्रतिष्ठित एवं सम्मानित हैं। तुम्हारे समय में शिक्षा, आध्यात्म, मोक्ष आदि पाने का जरिया होता था ऋषि, मुनियों का सान्निध्य, जिसमें वे आदरणीय पुरुष अपना जीवन लगा देते थे, आज के बाबा अपने एश्वर्य, भोग, लिप्सा के लिए दूसरों का जीवन ले रहे हैं। तुमने तो अपने शत्रु की अच्छाईयों को अपनाने में भी कभी देर नहीं की आज ऐसा करने की कोई सोचता भी नहीं है उल्टा उसके लिए कोई भी बुराई अपनाने में लोग नहीं हिचकते। तुमने अपने धूर विरोधियों को भी सम्मान दिया आज लोग अपने विरोधियों को मिटा देने में विश्वास करते हैं।

हे प्रभू आज हमें तुम्हारी ज्यादा जरूरत है। एक बार सिर्फ एक बार अपने सुंदर, सजीले, उतंग शिखरों वाले मंदिरों से बाहर आकर आप अपनी मातृभूमी की हालत देखो। तुम तो अंतर्यामी हो, दीनदयाल हो, सर्वशक्तिमान हो, तुम्हारे लिए तो कुछ भी अगम नहीं है.

एक बार सिर्फ एक बार फिर अवतार लो मेरे देवा !!!!!!

मंगलवार, 23 मार्च 2010

कबीर, जिन्हें एक साथ ही अग्नि और धरती में लीन होना पडा. .

कबीर के समय में काशी विद्या और धर्म साधना का सबसे बड़ा केन्द्र तो था ही, वस्त्र व्यवसायियों, वस्त्र कर्मियों, जुलाहों का भी सबसे बड़ा कर्म क्षेत्र था। देश के चारों ओर से लोग वहां आते रहते थे और उनके अनुरोध पर कबीर को भी दूर-दूर तक जाना पड़ता था।

“ मगहर” भी ऐसी ही जगह थी। पर उसके लिए एक अंध मान्यता थी कि यह जमीन अभिशप्त है। कुछ आड़ंबरी तथा पाखंड़ी लोगों ने प्रचार कर रखा था कि वहां मरने से मोक्ष नहीं मिलता है। इसे नर्क द्वार के नाम से जाना जाता था।

उन्हीं दिनों वहां भीषण अकाल पड़ा। ऊसर क्षेत्र, अकालग्रस्त सूखी धरती, पानी का नामोनिशान नहीं। सारी जनता त्राहि-त्राहि कर उठी। तब खलीलाबाद के नवाब बिजली खां ने कबीर को मगहर चल दुखियों के कष्ट निवारण हेतु उपाय करने को कहा। वृद्ध तथा कमजोर होने के बावजूद कबीर वहां जाने के लिए तैयार हो गये। शिष्यों और भक्तों के जोर देकर मना करने पर भी वह ना माने। मित्र व्यास के यह कहने पर कि मगहर में मोक्ष नहीं मिलता, उन्होंने कहा - “क्या काशी, क्या ऊसर मगहर, जो पै राम बस मोरा। जो कबीर काशी मरे, रामहीं कौन निहोरा”।

सबकी प्रार्थनाओं को दरकिनार कर उन्होंने वहां जा लोगों की सहायता करने और मगहर के सिर पर लगे कलंक को मिटाने का निश्चय कर लिया। उनका तो जन्म ही हुआ था रूढियों और अंध विश्वासों को तोड़ने के लिए।

मगहर पहुंच कर उन्होंने एक जगह धूनी रमाई। जनश्रुति है कि वहां से चमत्कारी ढंग से एक जलस्रोत निकल आया, जिसने धीरे-धीरे एक तालाब का रूप ले लिया। आज भी इसे गोरख तलैया के नाम से जाना जाता है। तालाब से हट कर उन्होंने आश्रम की स्थापना की। यहीं जब उन्होंने अपना शरीर त्यागा तो उनकी अंत्येष्टि पर उनके हिन्दु तथा मस्लिम अनुयायियों में विवाद खड़ा हो गया। कहते हैं कि इस कारण उनके चादर ढके पार्थिव शरीर की जगह सिर्फ पुष्प रह गये थे। जिन्हें दोनों समुदायों ने बांट कर अपनी-अपनी धार्मिक विधियों के अनुसार अंतिम संस्कार किया। आश्रम को समाधि स्थल बना दिया गया। आधे पर तत्कालीन काशी नरेश बीरसिंह ने समाधि बनवाई और आधे पर नवाब बिजली खां ने मकबरे का निर्माण करवाया। लखनऊ -गोरखपुर राजमार्ग पर गोरखपुर के नजदीक यह निर्वाण स्थल मौजूद है। पर यहां भी तंगदिली ने पीछ नहीं छोड़ा है। इस अनूठे सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक के भी समाधि और मजार के बीच दिवार बना कर दो टुकड़े कर दिये गये हैं। वैसे भी यह समाधि स्थल उपेक्षा का शिकार है।

सोमवार, 22 मार्च 2010

चुभ-चुभ कर भीतर चुभे, ऐसे कहे कबीर.

महाभारत काल में माँ के द्वारा त्यागे जाने और फिर अधिरथ द्वारा पाले जाने वाले कर्ण ने जैसे उस युग में अपनी गौरव गाथा फैलाई थी उसी प्रकार कबीर ने अपनी जननी द्वारा त्यागे जाने और जुलाहा परिवार में परवरिश पाने के बाद भक्ति काव्यधारा में अपने नाम को सूर्य की भांति स्थापित कर दिया।

संसार में ऐसे अनेक साहित्यकार हुए हैं जो अपने युग से प्रभावित ना हो युग को ही प्रभावित करते रहे हैं। निर्गुण संप्रदाय के प्रतिनिधी संत कबीर ऐसे ही लोकचेता कवि थे। जाति संप्रदाय से उपर उठ कर उन्होंने मनुष्य धर्म को प्रतिष्ठित किया। वे युगांतकारी संत, दार्शनिक, कवि एवं समाजसुधारक थे। उनकी सपूर्ण काव्य रचना “ बीजक” नामक ग्रंथ में संकलित है।

कबीर के जन्म पर विद्वान एकमत नहीं हैं। जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म 1453 ई। में बनारस में एक विधवा ब्राह्मणी के यहां हुआ था। लोकलाज के ड़र से जननी के द्वारा नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास छोड़ देने के पश्चात नीरू-नीमा जुलाहा दंपत्ति ने वहां से ला कर अपने घर में उनका पालन-पोषण किया। कबीर की शिक्षा घर की हालत और गरीबी के कारण ठीक से नहीं हो पाई थी। उन्हीं के अनुसार “मसि कागद छुओ नहीं, कलम गहि नहीं हाथ”। पर बौद्धिक विलक्षणता उनमें कूट-कूट कर भरी हुए थी। उन पर स्वामी रामानंद के विचारों का बहुत प्रभाव था। कबीर उन्हें ही अपना गुरु मान अपने विचार लोकार्पित करते थे।

कबीर का युग कटु संघर्ष का युग था। जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में कटुता छायी हुए थी। हिन्दु-मुस्लिम के आपसी सिद्धातों का टकराव अपने चरम पर था। इस सबसे कबीर दुखी और व्यथित रहते थे। उन्होंने नयी चेतना जागृत करने, समभाव पैदा करने, वैमनस्य मिटाने के लिए यात्राएं की। कबीर हिन्दु-मुस्लिम एकता के समर्थक थे। इसी विचारधारा के अनुसार उन्होंने अपना पंथ चलाया। उनकी भाषा खड़ी बोली, अवधी, पूर्वी, पंजाबी तथा उर्दू भाषाओं का मिश्रण थी। इसे लोग “सुधक्ड़ी” भाषा कहते हैं।

कबीर ने धर्मों में व्याप्त कुरीतियों और पाखंड़ों पर निर्मम प्रहार किए पर साथ ही उनकी समरसता और एकात्म्यता पर भी जोर दिया। उन्होंने भगवान राम को “अनहदनूर” कह कर हिन्दु-मुस्लिम धर्मों की सभ्यता को रेखाकिंत किया। यह विशाल और शाश्वत भाव किसी और के पास नहीं था। इसीलिए सैकड़ों लोग उनके मुरीद बन गये। हिन्दु मुसलमान समान रूप से उनकी जमात में शामिल हो गये। आज कबीर पंथी भारत में ही नहीं विदेशों में भी फैले हुए हैं। कबीर पंथ सुदूर फीजी तथा मारिशस तक अपनी शाखाओं द्वारा लोगों में धर्म समभाव का प्रसार कर रहा है।

कबीर ने कविताएं नहीं लिखीं अपने विचार प्रकट किये हैं। वे मस्त मौला थे, जो दिल में आता था स्पष्ट कह देते थे। तभी तो कहते हैं “चुभ-चुभ कर भीतर चुभे ऐसे कहे कबीर”। उनके लिये सब बराबर थे। सभी खुदा के बंदे थे। उनका चिंतन लोकहित में होता था – “सांई के सब जीव हैं, कीरी कुंजर दोय। का पर दया कीजिए, का पर निर्दय होय।”

उन्हें सभी धर्मों के लोग प्रेम करते थे। वे मुसलमान नहीं थे, हिन्दु हो कर हिन्दु नहीं थे, साधू हो कर गृहस्थ नहीं थे, योगी हो कर भी योगी नहीं थे। पर विड़ंबना यह रही कि कुछ तंगदिल अनुयायियों ने सांप्रदायिक सौहार्द के इस प्रतीक के अवसान के बाद उनके हिन्दु मुस्लिम होने को ले संघर्ष शुरु कर दिया। कहते हैं कि उनका शव फूलों के ढेर में तब्दील हो गया जिसे आधा आधा बांट हिन्दु तथा मुस्लिम रस्मों के अनुसार अंतिम रूप दिया गया। इसके बाद भी आपसी वैमनस्य खत्म नहीं हुआ तो मजार और समाधि के बीच दिवार खड़ी कर दी गयी। ऐसे ही लोगों के लिए कबीर अपने जीवन काल में ही कह गये थे -
“कबीरा तेरी झोपड़ी गलकटियन के पास, करनगे सो भरनगे तू क्यों होत उदास"।

साहेब बंदगी साहेब।

रविवार, 21 मार्च 2010

अंकल, कन्या खिलाओगे ?

आज सुबह दरवाजे की घंटी बजी। द्वार खोल कर देखा तो पांच से दस साल की चार-पांच बच्चियां लाल रंग के कपड़े पहने खड़ी थीं। छूटते ही उनमें सबसे बड़ी लड़की ने सपाट आवाज में सवाल दागा, 'अंकल, कन्या खिलाओगे'?
मुझे कुछ सूझा नहीं, अप्रत्याशित सा था यह सब। अष्टमी के दिन कन्या पूजन होता है, पर वह सब परिचित चेहरे होते हैं, और आज वैसे भी षष्ठी है। फिर सोचा शायद छुट्टी का दिन होने की वजह से गृह मंत्रालय ने कोई अपना विधेयक पास कर दिया हो इसलिये इन्हें बुलाया हो। अंदर पूछा तो पता चला कि ऐसी कोई बात नहीं है। मैं फिर कन्याओं की ओर मुखातिब हुआ और बोला, बेटा आज नहीं, हमारे यहां अष्टमी को पूजा की जाती है।
"अच्छा कितने बजे"? फिर सवाल उछला, जो सुनिश्चित भी कर लेना चाहता था, उस दिन के निमंत्रण को। मुझसे कुछ कहते नहीं बना, कह दिया, बाद में बताऐंगे। तब तक बगल वाले घर की घंटी बज चुकी थी।

मैं सोच रहा था कि बड़े-बड़े व्यवसायिक घराने या नेता आदि ही नहीं आम जनता भी चतुर होने लग गयी है। सिर्फ दिमाग होना चाहिये। दुह लो मौका देखते ही, जहां भी जरा सी गुंजाईश हो। बच ना पाए कोई।
जाहिर है कि ये छोटी-छोटी बच्चियां इतनी चतुर सुजान नहीं हो सकतीं। यह सारा खेल इनके माँ, बाप, परिजनों का रचा गया है। जोकि दिन भर टी.वी. पर जमाने भर के बच्चों को उल्टी-सीधी हरकतें करते और पैसा कमाते देख हीन भावना से ग्रसित होते रहते हैं अपने नौनिहालों को देख कि दुनिया कहां से कहां पहुंच गयी और हमारे बच्चे घर बैठे सिर्फ रोटियां तोड़े जा रहे हैं। ऐसे ही किसी कुटिल दिमाग में बच्चों को घर-घर जीमते देख यह योजना आयी और उसने इसका कापी-राइट कोई और करवाए, इसके पहले ही, दिन देखा ना कुछ और, बच्चियों को नहलाया, धुलाया, साफ सुथरे कपड़े पहनवाए, एक वाक्य रटवाया, "अंकल/आंटी, कन्या खिलवाओगे? और इसे अमल में ला दिया।
इनको पता है कि इन दिनों लोगों की धार्मिक भावनाएं अपने चरम पर होती हैं। फिर बच्ची स्वरुपा देवी को अपने दरवाजे पर देख कौन मना करेगा। सब ठीक रहा तो सप्तमी, अष्टमी और नवमीं तीन दिनों तक बच्चों और हो सकता है कि पूरे घर के खाने का इंतजाम हो जाए। ऊपर से बर्तन, कपड़ा और नगदी अलग से। वैसे भी इन तीन दिनों तक आस्तिक गृहणियां चिंतित रहती हैं कन्याओं की आपूर्ती को लेकर। जरा सी देर हुई और अघाई कन्या ने खाने से इंकार किया और हो गया अपशकुन।


अस्सी के दशक की याद आती है। दिल्ली में अपनी कालोनी में, खास कर अष्टमी के दिन, कैसे आस-पडोस की अभिन्न सहेलियों में भी अघोषित युद्ध छिड़ जाता था। सप्तमी की रात से ही कन्याओं की बुकिंग शुरु हो जाती थी। फिर भी सबेरे-सबेरे हरकारे दौड़ना शुरु कर देते थे। गृहणियां परेशान, हलुवा कडाही में लग रहा है पर चिंता इस बात की है कि "पन्नी" अभी तक आई क्यूं नहीं। "खुशी" सामने से आते-आते कहां गायब हो गयी? कोरम पूरा नहीं हो पा रहा है।
इधर काम पर जाने वाले हाथ में लोटा, जग लिए खड़े हैं कि देवियां आएं तो उनके चरण पखार कर काम पर जाएं। देर हो रही है, पर आफिस के बास से तो निपटा जा सकता है {वैसे आज के दिन तो वह भी लोटा लिए खड़ा होता था :)} घर के इस बास से कौन पंगा ले, वह भी तब जब बात धर्म की हो।

आज इन रायपुरियन ने कितना आसान कर दिया सब कुछ, पूरे देश को राह दिखाई है, घर पहुंच सेवा प्रदान कर।

"जय माता दी"

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

एक ई-मेलीय सवाल, माँ का हाल पूछने की फुरसत कहाँ है?

क्या जिंदगी इसी का नाम हैं.....?

शहर की इस दौड़ में, दौड़ के करना क्या है?

जब यही जीना है दोस्तों तो फ़िर मरना क्या है?

पहली बारिश में ट्रेन लेट होने की फ़िक्र है भूल गये भीगते हुए टहलना क्या है?

सीरियल्स् के किर्दारों का सारा हाल है मालूम पर माँ का हाल पूछ्ने की फ़ुर्सत कहाँ है?

अब रेत पे नंगे पाँव टहलते क्यूं नहीं?

108 हैं चैनल् फ़िर दिल बहलते क्यूं नहीं?

इन्टरनैट से दुनिया के तो टच में हैं, लेकिन पडोस में कौन रहता है जानते तक नहीं।

मोबाइल, लैन्डलाइन सब की भरमार है, लेकिन जिग्ररी दोस्त तक पहुँचे ऐसे तार कहाँ हैं?

कब डूबते हुए सुरज को देखा था, याद है?

कब जाना था शाम का गुज़रना क्या है?

तो दोस्तों शहर की इस दौड़ में दौड़् के करना क्या है जब् यही जीना है तो फ़िर मरना क्या....???

बुधवार, 17 मार्च 2010

कबीरदासजी और छत्तीसगढ़

साहेब बंदगी साहेब का स्वर यदि कभी सुनाई पड़े तो जान लीजिए कि कबीर पंथी आपस में एक दुसरे का अभिवादन कर रहे हैं।

सत्यलोक गमन के पश्चात कबीर जी की वाणी का संग्रह उनके शिष्य धर्मदास जी ने किया। वे बांधवगढ जिला शहडोल के रहने वाले थे। इन्हीं के द्वितीय पुत्र मुक्तामणी नाम साहब को कबीर पंथ के प्रचार-प्रसार का दायित्व मिला था। इन्होंने कुदुरमाल जिला कोरबा को अपना कार्यक्षेत्र बनाया तथा यहां से घूमते-घूमते रतनपुर, मण्ड़ला, धमधा, सिंघोड़ी तथा कवर्धा होते हुए दामाखेड़ा तक गये। तभी से दामाखेड़ा कबीर पंथियों का प्रमुख आस्था केन्द्र बना हुआ है। यहां हर साल माघ शुक्ल दशमी से माघ पुर्णिमा तक संतों का समागम होता आ रहा है। यह स्थान रायपुर- बिलासपुर मार्ग पर सिमगा नामक जगह से मात्र दस की.मी. की दूरी पर स्थित है। सन 1903 में यहां बारहवें वंश गुरु उग्रनाथ साहब ने, दशहरे के अवसर पर मठ की स्थापना की थी। यहां समाधी मंदिर में कबीर जी की जीवनी को बहुत सुंदर रूप में दिवारों पर उकेरा गया है। यहां किसी भी तरह का भेदभाव नहीं बरता जाता। यह तीर्थ सारी मानव जाति के लिए आराधना स्थल बना हुआ है।

इसके अलावा पेंड्रा रोड़ से अमरकंटक मार्ग पर करीब 6 की।मी। की दूरी पर "कबीर चौरा" नामक तीर्थ स्थल है। ऐसा मानना है कि कबीर जी ने यहीं आत्म चिंतन कर काव्य रचना करने की प्रेरणा पायी थी।

रविवार, 14 मार्च 2010

"ग्लोबलाइजेशन" की ई-मेलीय परिभाषा

Question:What is the truest definition of Globalization?
Answer:PrincessDiana'sdeath।

Question:How come?

Answer :AnEnglish princess with anEgyptian boyfriend
crashesin a French tunnel,driving a Germancar
with aDutch engine,

drivenby a Belgian
who wasdrunk

onScottish whisky,
followedclosely by

ItalianPaparazzi,
onJapanese motorcycles;

treatedby an American doctor,using
Brazilianmedicines।

This issent to you by
anIndian,

usingBill Gates's technology,

andyou're probably readingthis on your computer,
thatuses Taiwanese chips,and a Koreanmonitor,

assembledby
Bangladeshiworkers in aSingapore plant,

transportedby
Pakistan, lorry-drivers,

गुरुवार, 11 मार्च 2010

पचास का नोट

कोई २५-३० साल पहले पचास रुपये का एक नोट चलन में आया था। उसके पिछले
हिस्से में संसद का चित्र बना हुआ था। पर इमारत पर तिरंगे के स्थान पर सिर्फ 'पोल' था, झंडा नहीं छप पाया था। कुछ दिनों बाद उस नोट को हटवा लिया गया।
क्या किसी सज्जन के पास वैसा नोट है ? यदि हो तो बताएं।

बुधवार, 10 मार्च 2010

डर, कैसे-कैसे !!!

डर तो सबके अन्दर कुण्डली मारे बैठा होता है। कोई उस जाहिर कर देता है, कोई...................

अंधेरी, सुनसान रात। आकाश मेघाच्छन। किसी भी समय बरसात शुरू हो सकती थी। बियाबान पड़ा हाई-वे। दूर-दूर तक रोशनी का नामो निशान नहीं। ऐसे में विशाल अपनी बाइक दौड़ाते हुए घर की तरफ चला जा रहा था। बाइक की रोशनी जितनी दूर जाती थी, बस वहीं तक दिखाई पड़ता था, बाकी सब अंधेरे की जादूई चादर में गुम था।
इतने में बूंदा-बांदी शुरु हो गयी। कुछ दूर आगे एक मोड़ पर एक टपरे जैसी दुकान पर गाड़ी रोक कर विशाल ने अपना रेन कोट निकाल कर पहना और दुकान से एक पैकट सिगरेट ले जैसे ही गाड़ी स्टार्ट कर चलने को हुआ, पता नहीं कहां से एक मानवाकृति निकल कर आई और विनम्र स्वर में लिफ़्ट देने की याचना करने लगी। विकास ने नजरें उठा कर देखा, सामने एक उंचे-पूरे कद का, काला रेन कोट पहने, जिसका आधा चेहरा हैट के नीचे छिपा हुआ था, एक आदमी खड़ा था। उसको हां कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी। पर बिना कारण और इंसानियत के नाते ना भी नहीं कह पा रहा था। मन मार कर उसने उस को पीछे बैठा लिया। पर अब गाड़ी से भी तेज विशाल का मन दौड़ रहा था। उसने लिफ़्ट तो दे दी थी पर चित्रपट की तरह अनेकों ख्याल उसके दिमाग में कौंध रहे थे। अखबारों की कतरने आंखों के सामने घूम रहीं थीं। अभी पिछले हफ्ते ही इसी सड़क पर एक कार को रोक नव दम्पत्ति की हत्या कर गाड़ी वगैरह लूट ली गयी थी। तीन दिन पहले की ही बात थी एक मोटर साईकिल सवार घायल अवस्था में सड़क पर पाया गया था। वह तो अच्छा हुआ एक बस वाले की नज़र उस पर पड़ गयी तो उसकी जान बच गयी।
इसी तरह आए दिन लूट-पाट की खबरें आती रहती थीं। प्रशासन चौकसी बरतने का सिर्फ आश्वासन ही देता लगता था, क्योंकी विशाल को अभी तक सिर्फ आठ-दस वाहन ही आते जाते दिखे थे। पुलिस गस्त नदारद थी। शहर अभी भी पांच-सात किलो मीटर दूर था।

अचानक विशाल को अपने पीछे कुछ हरकत महसूस हुई। इसके तो देवता कूच कर गये। तभी पीछे वाले ने गाड़ी रोकने को कहा। विशाल समझ गया कि अंत समय आ गया है। बीवी, बच्चों, रिश्तेदारों के रोते कल्पते उदास चेहरे उसकी आंखों के सामने घूम गये। पर मरता क्या ना करता। उसने एक किनारे गाड़ी खड़ी कर दी। बाईक के रुकते ही पीछे वाला विशाल के पास आया और अपने रेन कोट का बटन खोल अंदर हाथ डाल कुछ निकालने लगा। विशाल किसी चाकू या पिस्तौल को निकलते देखने की आशंका से कांपने लगा। तभी पीछेवाले आदमी ने एक सिगरेट का पैकट विशाल के आगे कर दिया और बोला, सर क्षमा किजिएगा, बहुत देर से तलब लगी हुई थी। बैठे-बैठे निकाल नहीं पा रहा था। सच कहूं तो मैंने लिफ़्ट तो ले ली थी पर इस सुनसान रास्ते में मैं बहुत डरा हुआ था कि पता नहीं चलाने वला कौन है, कैसा है, तरह तरह की बातें दिमाग में आ रहीं थीं। पर मेरा जाना भी बहुत जरूरी था। बड़ी देर बाद अपने को संयत कर पाया हूं। यह सब सुन विशाल की भी जान में जान आयी।

दोनो ने सिगरेट सुलगायीं, अब दोनों काफी हल्कापन महसूस कर रहे थे।बरसात भी थम चुकी थी। दूर शहर की बत्तियां भी नज़र आने लग गयीं थीं।

मंगलवार, 9 मार्च 2010

सिगरेट, पियो तो मुश्किल ना पियो तो मुश्किल :-)

* सिगरेट तुम्हारी बिमारी का कारण है, तुम दिन भर में कितनी सिगरेट पीते हो? डाक्टर ने मरीज से पूछा।

यही कोई दस-बारह। मरीज ने जवाब दिया।

यह तो बहुत ज्यादा है। एक काम करो तुम खाना खाने के बाद ही सिगरेट पिया करो और एक महीने बाद मुझसे मिलना।

महीने भर बाद उसे देख डाक्टर बोला, देखा अब तुम पहले से कितने ठीक लग रहे हो। शरीर भी भर गया है।

अब डाक्टर साहब दस-बारह बार खाना खाने से शरीर तो भरेगा ही ना। मरीज ने जवाब दिया।


* तुम्हें सारे नशे धीरे-धीरे कम करने होंगे, तभी ठीक हो पाओगे। आज से शराब एक पेग से ज्यादा नहीं। सिगरेट दिन भर में चार बस। रात को खाना खा कर थोड़ी देर टहला करो, रात दस बजे के पहले सो जाना और सबेरे जल्दी उठोगे तो एकदम ठीक हो जाओगे।

महीने भर बाद जब फिर मरीज चेक करवाने आया तो डाक्टर ने पूछा , कैसा लग रहा है?

मरीज बोला बाकि तो सब ठीक है पर सिगरेट की आदत ड़ालने में कुछ तकलीफ हुई थी। पहले कभी पी नहीं थी ना।

सोमवार, 8 मार्च 2010

राष्ट्रपति, जो मुख्य मंत्री के चरण स्पर्श किया करता था.

हमारे पहले राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद हालांकि काफी धीर, गंभीर, गुणी इंसान थे। पर मन से बहुत कोमल और परम्पराओं को निभाने में विश्वास रखते थे।

उन्हें सांस की तकलीफ रहा करती थी इसलिये गर्मी के दिनों में मध्य प्रदेश के प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर पहाड़ी
स्थान पचमढी जाया करते थे। उस समय मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल हुआ करते थे। उनके निवास पर रोज शाम को रामचरित मानस का पाठ हुआ करता था। राजेंद्र बाबू अक्सर वहां जाया करते थे और जाते ही रविशंकर जी के चरण स्पर्श करते थे। शुक्ल जी जब भी उन्हें रोकते कि आप राष्ट्रपति हैं और मैं तो एक छोटा सा मुख्य मंत्री हूं आप मेरे पांव ना छूआ करें। तब ही राजेंद्र बाबू मुस्कुरा कर जवाब देते कि मैं एक ब्राह्मण के चरण स्पर्श करता हूं किसी मुख्य मंत्री के नहीं। जब भी मैं शाम को यहां आता हूं तो राष्ट्रपति के रूप में नहीं आता बल्कि, राम कथा का रस पान कर अपने को धन्य करने आता हूं। उनको समझाने का सभी ने बहुत प्रयास किया पर उन्होंने अपनी सरलता नहीं त्यागी। ऐसी विनम्रता की आशा क्या हम आज के राजनितिज्ञों से कर सकते हैं? जो अपने को महान बताने दिखाने के लिए पता नहीं कैसी-कैसी नौटंकिया करते रहते हैं।

राजेंद्र बाबू इतने बड़े पद पर रहने के बावजूद बहुत सादगी और मितव्ययी थे। एक बार उनके सचिव द्वारा लाया गया जूता उन्हें ठीक नहीं बैठ रहा था। इसे देख सचिव ने कहा कि अभी बदलवा लाता हूं। इस पर राजेंद्र बाबू ने पूछा कि कैसे जाओगे? सचिव ने कहा, कार से जाऊंगा। राजेंद्र बाबू बोले, अभी रहने दो, जब उधर कोई काम हो तब ही जाना। मेरा काम पुराने जूते से चल जाएगा। जानते हैं कि उन के जूते की कीमत क्या थी? सिर्फ आठ या दस रुपये।

सोचिए आज के मंत्रियों के बारे में जो लिखने के लिये हजारों रुपये की कलमों का इस्तेमाल करते हैं। वह भी कभी खुद के पैसे से ना खरीद कर। रही गाहियों की बात तो इन के वाहन चालक भी अपनी जरूरतों के लिए सरकारी गाड़ी को ही उपयुक्त मानते हैं।

रविवार, 7 मार्च 2010

मधुशाला और झाडूवाला

यह कोई व्यंग नहीं है, जीवन की सच्चाई है, ऐसे बहुतेरे लोग होंगे जो बिना किसी गिले-शिकवे के अपने परिवार के प्रति समर्पित होंगे ....

मेरे इलाके में एक फेरी वाला वर्षों से अपनी सायकिल पर झाड़ू बेचने आता रहता है। दूसरे फेरीवालों की अपेक्षा इसकी आवज शांत, बुलंद और साफ है। दो गलियों की दूरी से भी इसकी आवाज "झाड़ू वाला" साफ-साफ सुनी और समझी जा सकती है। बहुतेरी बार आमने-सामने पड़ने पर मुझे सदा उसका चेहरा शांत और संतुष्ट ही लगा। धीरे-धीरे जवानी से बुढापे में प्रवेश करता यह शक्स अभी भी उसी बुलंद आवाज के साथ अपना व्यापार चलाए जा रहा है।

पिछले रविवार को घर की जरूरत की वजह से उसे बुलवाया गया तो मैं उसके बारे में कुछ जानने की इच्छा ना रोक सका। बातों ही बातों में उसने बताया कि उसकी बड़ी बेटी रेल्वे की परिक्षा दे नौकरी पा चुकी है और उसकी शादी भी हो गयी है। छोटा बेटा भी बैंक में काम कर रहा है। मेरे यह पूछने पर कि उसके बच्चों को लगता नहीं कि यह फेरीवाला काम कुछ…………
मेरी बात पूरी होते ना होते वह तुरंत बोला, नहीं साहब, मेरे बच्चे बहुत समझदार हैं। वे तो सगर्व लोगों को बताते हैं कि उनके पिता ने कितनी मेहनत कर उन्हें ऐसी जगह पहुंचाया है। शुरु-शुरु में बहुत तंगी और मुश्किलों का सामना करना पड़ा था, पर धीरे-धीरे सब ठीक होता चला गया और जिस काम ने मुझे और मेरे परिवार को खुशहाली देने में मदद की है उसे मैं कैसे छोड़ सकता हूं। जब तक शरीर साथ देता है तब तक यही काम करता रहूंगा। इतना कह वह नमस्ते कर आगे बढ गया अपने से ज्यादा अपने बच्चों के बारे में मुझे सोचता छोड़।

मैं सोच रहा था कि जब एक लायक बेटा यदि अपने पिता की शराब के वितरण स्थल को महिमा मंड़ित करने वाले भावों को सग्रव दुनिया के सामने पेश करता रह सकता है तो इस झाड़ू और उसके बेचने वाले की संस्तुति क्यों नहीं की जा सकती जो सदा सर्वदा घर, बाहर, दुनिया-जहान से गंदगी साफ करने को कटिबद्ध रहता है।

यह लेख सिर्फ एक इंसान के अपने परिवार के प्रति समर्पण और अपने कर्तव्य को पूरा करने के जज्बे को सामने रखने के लिए लिखा गया है। किसी दुर्भावना या पूर्वाग्रह से दूर रह कर।

शनिवार, 6 मार्च 2010

अपने "भगवानों" की असलियत जानने की जहमत कब उठाएंगे?

रोज कहीं न कहीं किसी न किसी बाबा की असलियत पर लानत मलानत करनेवाले अपने "भगवानों" की खोज-खबर कब लेंगे?

रोज मीडिया पर नामी-गिरामी तथाकथित संतों, बाबाओं तथा स्वघोषित भगवानों की पोल खुलते देख कुछ साल पहले की एक बात याद आ रही है।

पंजाब की भी परम्परा रही है, मठों, गद्दियों, मढियों की। वर्षों से ऐसे स्थानों से गांववालों के लिए शिक्षा, चिकित्सा की व्यवस्था होती रही है, धार्मिक कर्मकांडों के साथ-साथ। बहुत से संतों ने निस्वार्थ भाव से अपना जीवन लोगों की हालत सुधारने में खपा दिया है। पर धीरे-धीरे गांववालों के भोलेपन का फायदा उठा यहां भी बहुतेरी जगहों पर अपना उल्लू सीधा करने वालों ने अपने पैर जमाने शुरु कर दिए हैं।

कुछ वर्षों पहले पंजाब के कपूरथला जिले के एक "गांव" में जाने का मौका मिला था। वहां कुछ देखने सुनने को तो था नहीं सो गांव के किनारे स्थित मठ को देखने का फैसला किया गया। शाम का समय था। मठ में काफी चहल-पहल थी। मैं वहां पहली बार गया था तो मेरे साथ भी कौतुहल वश कुछ लोग थे। मंदिर का अहाता पार कर जैसे ही वहां के संतजी के कमरे के पास पहुंचा तो ठगा सा रह गया। उस ठेठ गांव के मठ के वातानुकूलित कमरे की धज ही निराली थी। सुख-सुविधा की हर चीज वहां मौजूद थी। उस बड़े से कमरे के एक तरफ तख्त पर मोटे से गद्दे पर मसनद के सहारे एक 35-40 साल के बीच का नाटे कद का इंसान गेरुए वस्त्र और कबीर नूमा टोपी लगाए अधलेटा पड़ा था। नीचे चटाईयों पर उसके भक्त हाथ जोड़े बैठे थे। मुझे बताया गया कि बहुत पहुंचे हुए संत हैं। बंगाल से हमारी भलाई के लिए यहां उजाड़ में पड़े हैं। बंगाल का नाम सुन मेरे कान खड़े हो गये। मैंने पूछा कि कौन सी भलाई के काम यहां किए गये हैं, क्योंकि मुझे गांव तक आने वाली आधी पक्की आधी कच्ची धूल भरी सडक की याद आ गयी थी। मुझे बताया गया कि मठ में स्थित मंदिर में चार कमरे बनाए गये हैं, मंदिर का रंग-रोगन किया गया है, मंदिर के फर्श और दिवार पर टाईल्स लगाई गयीं हैं, मंदिर के हैंड पम्प पर मोटर लगाई गयी है। मुझे उनके कमरे और "भलाई के कामों" को देख उनके महान होने में कोई शक नहीं रहा। इधर साथ वाले लोग मुझे बार-बार संतजी के चरण स्पर्श करने को प्रेरित कर रहे थे पर मेरे मन में कुछ और ही चल रहा था। मैंने आगे बढ कर बंगला में संत महाशय से पूछा कि बंगाल से इतनी दूर इस अनजाने गांव में कैसे आए? मुझे बंगाली बोलते देख जहां आसपास के लोग मेरा मुंह देखने लगे वहीं दो क्षण के लिए संत महाशय सकपका से गये, पर तुरंत सम्भल कर धीरे से बोले कि बस ऐसे ही घूमते-घूमते।

मैं पूछना तो बहुत कुछ चाहता था पर वहां के माहौल और उनके प्रति लोगों की अटूट श्रद्धा को देख कुछ हो ना पाया और मन में बहुत सारे प्रश्नों को ले बाहर निकल आया। बाहर आते ही पिछवाड़े की ओर कुछ युवकों को "सुट्टा" मारते देख मैंने साथ के लोगों से पूछा कि ये "चिलमिये" कौन हैं तो जवाब मिला यहां के सेवादार हैं।

मन कुछ अजीब सा हो गया। रोज टी. वी. पर बाबाओं की पोल खुलते देख उनकी लानत-मलानत करने वाले अपने "भगवानों" की असलियत जानने की जहमत कब उठाएंगे, भगवान ही जाने।

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

कामदेव से कोई भी नहीं जीत सकता

एक गांव में एक पंडितजी अपनी पत्नि और बेटी के साथ रहते थे। आसपास के गांवों में पूजा-पाठ तथा कथा वाचन कर किसी तरह अपने इस छोटे से परिवार का निर्वाह करते थे। जब भी कभी वह अपनी कथा समाप्त करते तो अंत में यह जरूर कहते थे कि कामदेव बहुत शक्तिशाली हैं उनसे कोई भी नहीं जीत सकता, फिर भी इंसान को संयमित होना चाहिए।

एक दिन जब वह कथा समाप्त कर प्रवचन देकर हटे तो वहीं से गुजरते एक साधू ने, जो अपने आप को बड़ा तपस्वी समझता था, उन्हें चुन्नौती दी कि जो कहते हो उसे सिद्ध करो नहीं तो कथा कहना बंद कर दो। पंडितजी सीधे-साधे इंसान थे वे सुनी-सुनाई कथाएं बांचा करते थे। अब उनकी प्रतिष्ठा दांव पर थी। वे चुप-चाप उदास हो घर जा कर लेट रहे। उनकी कन्या ने उनकी यह हालत देख कारण पूछा तो पंडितजी ने सारी बात बता दी। सारी बात सुन वह बोली आप चिंता ना करें, मैं आपकी बात सिद्ध कर दिखाउंगी।

दुसरे दिन शाम को उसने स्वादिष्ट भोजन बनाया और खूब सज-धज कर साधू के ठिकाने की ओर भोजन की थाली ले चल पड़ी। दैवयोग से उसी समय बुंदाबांदी भी शुरु हो गयी। उसने साधू के पास जा कर कहा, मैने आपकी बहुत ख्याति सुन रखी है। मुझे आप दिक्षा दीजिए। मैं आपकी शरण में हूं और आप के लिए प्रसाद लाई हूं। कृपया ग्रहण करें।
स्वादिष्ट भोजन, सुंदर कन्या, सुहानी शाम, साधू महाराज का मन ड़ोल उठा। वह कुछ आगे बढते कि कन्या ने कहा कि मुझे ड़र लग रहा है कि कोई आ ना जाए। कृपया बाहर देख लें कोई है तो नहीं। साधू जैसे ही कोठरी से बाहर निकला, कन्या ने दरवाजा बंद कर लिया। यह देख पहले तो साधू ने दरवाजा खोलने का अनुरोध किया फिर धमकाने लगा। पर जब इस पर भी दरवाजा नहीं खुला तो वह कुटिया की छत पर चढ गया और उपर सुराख करने लगा। एक छोटा सा छेद होते ही वह अंदर आने की कोशिश में उसी में फंस कर रह गया। उसे उसी अवस्था में छोड़ कन्या दौड़ते हुए गयी और अपने पिता और गांव वालों को बोली कि अब जा कर साधू से पूछिए कि कामदेव में कितनी ताकत होती है? सबने वैसा ही किया। अपने सामने सब लोगों को देख साधु बुरी तरह शर्मिंदा हुआ और बोला मुझे क्षमा करें। मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गयी। मैं हार मानता हूं। कामदेव बहुत शक्तिशाली हैं, उनसे कोई भी नहीं जीत सकता।

गुरुवार, 4 मार्च 2010

एक ई-मेलीय उपदेश

हे, पार्थ (कर्मचारी),

इस बार इंक्रिमेंट अच्छा नहीं हुआ, बुरा हुआ।

इंसेंटिव नहीं मिला, यह भी बुरा हुआ।

वेतन में कटौती हो रही है, बुरा हो रहा है।

तुम पिछले इंसेंटिव ना मिलने का पश्चाताप ना करो।

तुम अगले इंसेंटिव की भी चिंता मत करो।

बस जो मिल रहा है उस वेतन में संतुष्ट रहो....

तुम्हारी जेब से क्या गया जो रोते हो?

जो आया था सब यहीं का था।

तुम जब नहीं थे, तब भी यह कंपनी चल रही थी।

तुम जब नहीं रहोगे तब भी यह कंपनी चलती रहेगी।

तुम कुछ भी ले कर यहां नहीं आए थे।

जो अनुभव मिला यहीं मिला।

जो भी काम किया कंपनी के लिए किया।

डिग्री ले कर आए थे, अनुभव ले कर जाओगे।

जो कम्प्यूटर आज तुम्हारा है, वह कल किसी और का था.

कल किसी और का होगा और परसों किसी और का।

तुम इसे अपना समझ कर क्यों खुश हो रहे हो।

यही खुशी तुम्हारी समस्त परेशानियों का मूल कारण है।

मंगलवार, 2 मार्च 2010

अब पहले की तरह मौकापरस्तों का हाल बुरा नहीं होता.

बहुत पुरानी बात है। सभी प्राणी मिल-जुल कर रहते थे। पूरी दुनिया पर पशु-पक्षियों का राज था। मनुष्य कहीं छिप-छिपा कर रहता था। एक बार एक पेड़ की निचली डाल पर घोंसला बना, एक गौरैया ने उसमें अंड़े दे दिये। दो-चार दिन बाद ही वहां से हाथियों का झुंड़ निकला। उनमें से किसी एक के शरीर से रगड़ खा वह डाल टूट गयी जिस पर चिड़िया का बसेरा था, उसका घर उजड़ गया। वह काफी चीखी चिल्लाई पर हाथी अपनी मस्ती में आगे बढ गये। गौरैया ने जा कर पशुओं के राजा शेर से शिकायत की, पर गरीब की कौन सुनता है, उसे वहां से भगा दिया गया। रोती-कलपती दुखी चिड़िया ने आखिर पक्षियों के राजा, गरुड़ के दरबार में गुहार लगाई। उन्होंने उसकी बात सुनी और पशुओं के राजा को इंसाफ करने और हर्जाना देने को कहा। उधर हाथी का रसूख दरबार में बहुत था सो शेर ने कोई ध्यान नहीं दिया। यह बात पक्षियों के राजा को खल गयी और उन्होंने युद्ध का एलान कर दिया। दोनो तरफ के सूरमा मैदान में इकठ्ठे हो गये। सुबह की पहली किरण के साथ ही लड़ाई शुरु हो गयी। हालांकि पक्षियों में एक से बढ कर एक योद्धा थे पर आमने-सामने की लड़ाई में वे विशालकाय हाथी, दुर्धष गैंड़े, ताकतवर शेर, चीते, भैंसे इत्यादि से कहां पार पा सकते थे। दिन भर की लड़ाई के बाद पक्षियों के हजारों सैनिक मारे गये।

इस पूरी लड़ाई को मौका परस्त चमगादड़ छिप के देख रहा था। जब शाम को पशुओं की जीत होती दिखी तब वह शेर के पास जा बोला, महाराज मुझे अपनी ओर रहने का मौका दे दें, क्योंकि मैं भी आप लोगों की तरह बच्चे पैदा करता हूं और स्तनपायी हूं। शेर ने उसे इजाजत दे दी। इधर पक्षियों की मंत्रणा हुई, हार के कारणों पर बहस हुई तो उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ कि जब हम उड़ सकते हैं तो फिर जमीन पर खड़े हो कर क्यूं लड़ रहे हैं? ऐसे तो हमारा सफाया हो जाएगा। तुरंत रण-नीति बदली गयी। सबेरा होते ही जब युद्ध शुरु हुआ तो परिणाम बिल्कुल उल्टे थे। पशुओं के उपर तो जैसे मौत नाचने लगी, पक्षी उन पर उड़-उड़ कर प्रहार कर रहे थे और वे असहायों की तरह मरते जा रहे थे। शाम होते-होते इस एकतरफा लड़ाई में हजारों पशु खेत रहे। पक्षियों की जीत निश्चित हो गयी थी। यह देख चमगादड़ चुप-चाप पक्षियों के राजा के पास गया और बोला, महाराज मुझे अपनी शरण में ले लें, मुझे पशुओं ने जबर्दस्ती अपनी ओर कर रखा था। मैं तो आपकी तरह ही उड़ता हूं , पेड़ों पर रहता हूं मैं तो पक्षी ही हूं। जीत की खुशी थी राजा ने ज्यादा ध्यान ना दे उसे अपनी ओर मिला लिया।

इधर पशुओं के राजा ने जब लड़ाई के कारण पर गौर किया तब उन्हें लगा कि गलती हमारी ही थी। हाथी ने जो किया वह दंड़ के लायक था। बेवजह इतने पशु-पक्षियों की जानें गयीं। उन्होंने तुरंत क्षमा मांगते हुए संधि प्रस्ताव पक्षियों की ओर भेजा। इधर बेचारी चिड़िया भी इतने लोगों के मारे जाने से दुखी थी। उसने भी अपने राजा को युद्ध रोकने की प्रार्थना की। लड़ाई खत्म हुई सब जने आपस में गले मिल वैर-भाव मिटा रहे थे। तभी चमगादड़ की असलियत भी सब के सामने आ गयी। दोनों पक्षों को धोखा देने के कारण उसकी बुरी गत बना दी गयी तथा दोनों पक्षों से दूर रहने का आदेश पारित कर दिया गया।

तबसे चमगादड़ अपने ही झुंड़ में अलग-थलग रहता है और ड़र के मारे रात को ही निकलता है।

पर धीरे-धीरे उसकी प्रवृत्ति मनुष्यों में भी आ गयी पर मनुष्य को अलग-थलग नहीं रहना पड़ता। उसकी कुटिल बुद्धि ने दुसरों को अलग-थलग कर खुद सत्ता हथियाने का करिश्मा कर दिखाया है।

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