रविवार, 7 जून 2009

जब मेरे पिताजी और ताऊजी निजाम की जेल गए.

1934-35 का समय था। घर-घर में अंग्रेजों तथा उनके समर्थकों के विरुद्ध जनमानस में आक्रोश सुलगता रहता था। उन्हीं समर्थकों में एक था हैदराबाद का निजाम। उसकी देश विरोधी हरकतों के कारण आर्यसमाज ने उसके विरोध में आंदोलन चला रखा था जिसके कारण जत्थे के जत्थे हैदराबाद विरोध प्रदर्शन के लिये जाते रहते थे।

मेरे दादाजी का अपना व्यवसाय था। दादीजी कलकत्ते में आर्यसमाज की एक प्रमुख कार्यकर्ता थीं। सरकार विरोधी कार्यक्रमों के कारण उनकी धर-पकड़ होती रहती थी। एक बार अलीपुर जेल में झंड़ोतोलन और वंदन के कारण उन्हें लंबी सजा भी मिली थी जिसके दौरान उनकी आंखों पर पड़े दुष्प्रभाव के कारण उन्हें अपनी नेत्र ज्योति से वंचित होना पड़ा था। इसी परिवार के साथ मेरे पिताजी के चचेरे भाई भी रहा करते थे। जो पिताजी से दो साल बड़े करीब सोलह साल के थे, दोनों में खूब पटती थी। वह भी दादीजी को मां ही कह कर पुकारा करते थे। पर दोनों बच्चों को तकरीबन रोज ही दादीजी के उलाहने सुनने को मिलते थे कि सारा देश आजादी की लड़ाई में जुटा हुआ है और तुम्हें अपने खेल-तमाशे से ही फुर्सत नहीं है, नालायक कहीं के। तो एक दिन बड़े भाई ने छोटे को उकसा, बहला, फुसला कर हैदराबाद 'घूमने' के लिये राजी कर मां को अपना फैसला सुना दिया।

अब आगे की सारी बातें मेरे ताऊजी की जुबानी, ....
"मेरी बात सुन मां बड़ी खुश हुईं, हालांकी बाबा कुछ चिंतित थे, पर फिर उन्होंने हमारी जिद देख अनमने मन से इजाजत दे दी। उस समय का माहौल ही अलग हुआ करता था। हम दोनों को नये कपड़े दिलाये गये और पार्टी के जिम्मेदार कार्यकर्ताओं के हवाले कर दिया गया। हावड़ा स्टेशन से मद्रास मेल में हम नारे लगाते हुए रवाना हो गये। दूसरे दिन विजयवाड़ा उतर खूब तेल वगैरह लगा कृष्णा नदी में नहा-धो कर, ब्रेड आदि खा, आगे चले पर खम्मम में हम सब को गिरफ्तार कर एक मैदान में बंद कर दिया गया। किसी तरह रात काटी दूसरे दिन जज के सामने पेश किया गया, जिसने सबको वापस भेजने का हुक्म सुना दिया। पर हम वापस जाने के लिये तो गये नहीं थे, सो वहीं सब लेट गये, नारेबाजी होने लगी तमाम कोशिशों के बावजूद हमने हटने और वापस जाने से इंकार कर दिया। जज आग-बबूला हो गया, नाफर्मानदारी की सजा मिली, 6 महिने की बामुश्कत जेल। सारे कार्यकर्ता ऐसे खुश हो गये जैसे कहीं का राज मिल गया हो। हमें वारांगल जेल भेजा जाना था जो कुछ दूर थी। हम सब ने पैदल जाने से इंकार कर दिया। फिर वही खींचतान पर हार कर उन्हें सवारी का इंतजाम करना ही पड़ा। इसी में सारा दिन निकल गया। किसी तरह शाम को हम भूखे-प्यासे जेल पहुंचे। पर हम बच्चों को भी भूख-प्यास नहीं सता रही थी उल्टे लग रहा था जैसे कोई किला फतह करने निकले हों। वहां पहुंचते ही हमारे कपड़े उतरवा कर जेल की पोशाक पहनने को दी गयी। हाजरी लगी तब जाकर खाने की घंटी बजी पर खाना क्या था, बाजरे की मोटी रोटी जिसमें आटे से ज्यादा मिट्टी थी जो चबाते ही नहीं बन पा रही थी और वैसी ही पनीली दाल जो दाल कम नमकीन पानी ज्यादा थी। एक भी कौर निगला नहीं जा सका। जेल में ऐसा खाना मिलता है यह सुना जरूर था उस दिन प्रत्यक्ष प्रमाण भी मिल गया। तब घर की बहुत याद आई थी...!!!
# जेल की कारस्तानियां कल बता पाऊंगा ..

7 टिप्‍पणियां:

समयचक्र ने कहा…

शीर्षक देखकर पहले तो समझा कि ये अपने रामप्यारी जी के ताऊ है . जब पढ़ा कि आपके ताऊ जी .है तो पूरी तरह से पढ़ा . बढ़िया संस्मरण है . धन्यवाद.

विक्रांत ने कहा…

आर्यसमाज के बारे में काफी जानकारी ले रहा हूँ इन्टरनेट से. उनके साईट से कुछ अच्छे डाकुमेंट भी डाउनलोड किया है.

काफी योगदान रहा है आर्यसमाज का आजादी में, हमने भुला दिया ये दूसरी बात है.

अच्छा लगा आपका लेख....आजादी आसान तो नहीं ही रही होगी.... कितने लोगों के त्याग और बलिदान की कहानी है. विचार की जरुरत है.

P.N. Subramanian ने कहा…

हमें भी अच्छा ही लगा यह लेख क्योंकि हमारे पिताश्री भी ऐसे ही आन्दोलन में जेल में रहे. आभार.

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत अच्छा लगा आज का लेख पढ कर, उस समय तो हम पता नही कहा थे ओर कोन थे ? लेकिन जब पेदा हुये तो देश आजाद था, ओर जब कुछ पढने लिखने के काबिल हुये तो पिता जी की किताबे पढा करते थे, जिन मे वीर शहीदो की बाते लिखी होती थी, नेता जी सुभाषचन्द्र, भगत सिह जेसे शेरो की कुर्बानियो के बारे लिखा होता था, बस वही से इन कुत्ते अंग्रेजो के बिरुध दिल मै नफ़रत पेदा हो गई, ओर आजादी से प्यार हो गया, ओर आप के लेख ने यह सब याद दिला दिया जो बाद मै हमे हमारे मां बाप, दादा दादी ने सुनाया था, इसी लिये तो भारत ओर हर भारतीया मुझे जान से प्यार लगता है, अगली कडी का इंतजार
धन्यवाद

Udan Tashtari ने कहा…

आपका संस्मरण पढ़ कर अच्छा लगा. आभार.

संजय बेंगाणी ने कहा…

khoob

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

देशभक्ति की भावना का संचार करता संस्मरण
प्रेरक और रोचक है।
धन्यवाद।

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