मंगलवार, 30 दिसंबर 2008

ज्ञान भी सुपात्र को ही देना चाहिए

एक बहुत विद्वान ब्राह्मण थे। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। वे घूम-घूम कर लोगों में ज्ञान बांटा करते थे। एक बार इसी तरह विचरण करते हुए वह एक राजा के यहां जा पहुंचे। राजा ने उनका बहुत आदर सत्कार किया। उन्हें अपने महल में ठहराया। रोज ही उनके सत्संग रूपी प्रकाश से राज्य की जनता अपना अज्ञान रूपी अंधकार मिटाती रही। इसी तरह कुछ दिन व्यतीत होने पर ब्राह्मणदेव ने अपनी यात्रा जारी करने की इच्छा जाहिर की। जाते समय राजा ने उनसे गुरुमंत्र देने को कहा। इस पर उन्होंने राजा से कहा कि सदा आलस्य रहित होकर, शान्ति, मित्रता, दया और धर्म से अपने राज्य का संचालन करते रहना। इस पर राजा ने प्रसन्न होकर उन्हें एक गांव भेंट करना चाहा पर ब्राह्मणदेव ने उसे लेने से इंकार कर दिया और अपनी राह चल पड़े।
चलते-चलते वे एक नदी किनारे आ पहुंचे। वहां का मल्लाह निपट मूर्ख था। उसे सिर्फ अपने पैसों से मतलब था। उसने आज तक किसी को भी बिना पैसा लिये पार नहीं उतारा था। पैसे के लिये वह लड़ाई-झगड़ा करने से भी बाज नहीं आता था। अब ब्राह्मण को उस पार जाना था सो उन्होंने नाविक से पूछा कि क्या भाई मुझे उस पार ले जाओगे ? नाविक ने कहा क्यों नहीं, किराया क्या दोगे? पंडितजी ने कहा मैं तुम्हें ऐसा उपाय बताउंगा जिससे तुम्हारे धन और धर्म दोनों की वृद्धि होगी। यह सुन कर मल्लाह ने उन्हें पार उतार दिया और उधर जा पैसे की मांग की। पंडितजी ने कहा कि तू पार उतारने के पहले ही यात्रियों से पैसा ले लिया कर, बाद में उनका मन बदल सकता है। यह धन की वृद्धि का उपाय है। नाविक ने सोचा कि इस सलाह के बाद ये पैसे भी देगा, सो उसने फिर किराया मांगा। पंडितजी ने कहा अभी तुझे धन की वृद्धि का उपाय बताया अब तू धर्म वृद्धि का उपाय भी जान ले, कैसा भी समय हो जगह हो कभी क्रोध मत करना इससे तेरा धर्म बढ़ेगा और तू सदा सुखी रहेगा। पर इस शिक्षा का मल्लाह पर कोई असर नहीं हुआ उसने कहा क्या यही तेरा किराया है? इससे काम नहीं चलनेवाला पैसे निकालो। पंडितजी ने कहा भाई मेरे पास तो शिक्षा ही है और कुछ तो है नहीं। मल्लाह चिल्लाया कि अरे भिखारी तेरे पास पैसे नहीं थे तो तू मेरी नाव में क्यूं चढ़ा, इतना कह उसने पंडितजी को नीचे गिरा पीटना शुरु कर दिया। इसी बीच नाविक की पत्नि आ गयी और उसने किसी तरह पंडितजी को छुड़ाया।
पंडितजी जाते-जाते सोच रहे थे कि इसी शिक्षा को सुनकर राजा मुझे गांव देने को तैयार था और उसी शिक्षा को सुन यह जाहिल मेरी जान के पीछे पड़ गया था।

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

तालियाँ, पैसे कमाने का एक जरिया.

इस जगत में स्तुति गान की परंपरा रही है, चाहे देवलोक हो या पृथ्वी लोक। देवी-देवताओं, गुरुओं, राजा महाराजाओं, ज्ञानी गुणी जनों आदि की पूजा अर्चना, बड़ाई, स्वागत इत्यादि में तरह-तरह के कसीदे काढे जाते रहे हैं। ये सब कभी श्रद्धा कभी खुशी कभी भय या कभी मजबूरी में भी होता रहा है। आज तो अपनी जयजयकार करवाना, तालियां बजवाना अपने आप को महत्वपूर्ण होने, दिखाने का पैमाना बन गया है। इस काम को अंजाम देने वाले भी सब जगह उपलब्ध हैं। तभी तो लच्छू सबेरे तोताराम जी का गुणगान करता मिलता है तो दोपहर को गैंडामल जी की सभा में उनकी बड़ाई करते नहीं थकता और शाम को बैलचंद की प्रशंसा में दोहरा होता चला जाता है।

यह सब अभी शुरु नहीं हुआ है, यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। हमारे यहां अधिकांश शासकों के यहां चारण और भाट ये काम करते आये हैं। जिनमें से बहुतों ने मुश्किल समय में अपने फर्जानुसार देश की सेवा भी की है। पर यहां सिर्फ अपने आप को महत्वपूर्ण दिखाने के लिये की जानेवाली व्यवस्था की बात कर रहा हूं।
रोम के सम्राट नीरो ने अपनी सभा में काफी संख्या में ताली बजाने वालों को रोजी पर रखा हुआ था। जो सम्राट के मुखारविंद से निकली हर बात पर करतलध्वनी कर सभा को गुंजायमान कर देते थे।

ब्रिटेन में किराये के लोग बैले नर्तकों के प्रदर्शन पर तालियों की शुरुआत कर दर्शकों को एक तरह से मजबूर कर देते थे प्रशंसा के लिये। पर इस तरह के लोगों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। ब्रिटेन में ही एक थियेटर में ऐसी हरकत करने वाले के खिलाफ एक दर्शक ने 'दि टाईम्स' पत्र में शिकायत भी कर दी थी। पर उसका असर उल्टा ही हो गया, लोगों का ध्यान इस कमाई वाले धंधे की ओर गया और बहुत सारे लोगों ने यह काम शुरु कर दिया। जिसके लिये बाकायदा ईश्तिहारों और पत्र लेखन द्वारा इसका प्रचार शुरु हो गया।

इटली में भी यह धंधा खूब चल निकला। धीरे-धीरे इसकी दरें भी निश्चित होती चली गयीं। जिनमें अलग-अलग बातों और माहौल के लिये अलग-अलग किमतों का प्रावधान था। बीच-बीच में इसका विरोध भी होता रहा पर यह व्यवसाय दिन दूनी रात अठगुनी रफ्तार से बढता चला गया।

इन सब को छोड़ें, कभी ध्यान से अपने टी वी पर किसी ऐसे कार्यक्रम को देखें जिसमें लोग बहुत खुश, हंसते या तालियां बजाते नजर आते हों। कैमरे के बहुत छिपाने पर भी आप देख पायेंगे, कि यह पागलपन का दौरा सिर्फ सामने की एक दो कतारों पर ही पड़ता है, पीछे बैठे लोग निर्विकार बने रहते हैं। क्योंकि सिर्फ सामने वालों का ही जिम्मा है आप पर डोरे डालने का।

जाते-जाते :- पश्चिम जर्मनी के दूरदर्शन वालों ने एन शैला नामक एक महिला को दर्शकों के बीच बैठ कर हंसने के लिये अनुबंधित किया था। कहते हैं उसकी हंसी इतनी संक्रामक थी कि सारे श्रोता और दर्शक हंसने के लिये मजबूर हो जाते थे।
तो क्या ख्याल है--------------

रविवार, 21 दिसंबर 2008

आस्था अपनी अपनी, श्वान पुत्र की माँ का डर

गांव के बाहर एक घना वट वृक्ष था। जिसकी जड़ों में एक दो फुटिया पत्थर खड़ा था। उसी पत्थर और पेड़ की जड़ के बीच एक श्वान परिवार मजे से रहता आ रहा था।
एक दिन महिलाओं का सामान बेचने वाले एक व्यापारी ने थकान के कारण दोपहर को उस पेड़ के नीचे शरण ली और अपनी गठरी उसी पत्थर के सहारे टिका दी। सुस्ताने के बाद उसने अपना सामान उठाया और अपनी राह चला गया। उसकी गठरी शायद ढीली थी सो उसमें से थोड़ा सिंदुर उस पत्थर पर गिर गया। सबेरे कुछ गांव वालों ने रंगा पत्थर देखा तो उस पर कुछ फूल चढा दिये। इस तरह अब रोज उस पत्थर का जलाभिषेक होने लगा, फूल मालायें चढने लगीं, दिया-बत्ती होने लगी। लोग आ-आकर मिन्नतें मांगने लगे। दो चार की कामनायें समयानुसार प्राकृतिक रूप से पूरी हो गयीं तो उन्होंने इसे पत्थर का चमत्कार समझ उस जगह को और प्रसिद्ध कर दिया। अब लोग दूर-दूर से वहां अपनी कामना पूर्ती के लिये आने लग गये। एक दिन एक परिवार अपने बच्चे की बिमारी के ठीक हो जाने के बाद वहां चढावा चढा धूम-धाम से पूजा कर गया।
यह सब कर्म-कांड श्वान परिवार का सबसे छोटा सदस्य भी देखा करता था। दैव योग से एक दिन वह बिमार हो गया। तकलीफ जब ज्यादा बढ गयी तो उसने अपनी मां से कहा, मां तुम भी इन से मेरे ठीक होने की प्रार्थना करो, ये तो सब को ठीक कर देते हैं। मां ने बात अनसुनी कर दी। पर जब श्वान पुत्र बार-बार जिद करने लगा तो मजबूर हो कर मां को कहना पड़ा कि बेटा ये हमारी बात नहीं सुनेंगें। पुत्र चकित हो बोला कि जब ये इंसान के बच्चे को ठीक कर सकते हैं तो मुझे क्यों नहीं।
हार कर मां को कहना पड़ा, बेटा तुम्हारे पिता जी ने इसे इतनी बार धोया है कि अब तो मुझे यहाँ रहते हुए भी डर लगता है।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

विवाहों की भी श्रेणियां होती हैं।

#हिन्दी_ब्लागिंग 
तकरीबन संसार के सभी धर्मों और जातियों में, समाज में मर्यादा बनाये रखने के लिये, सदाचार की बढोतरी तथा व्यभिचार की रोक-थाम के लिये विवाह की प्रथा का चलन रहा है। हमारे वेदों में भी सारे आश्रमों में गृहस्थाश्रम को सर्वोपरि स्थान दिया गया है। जिसमें प्रवेश विवाह के पश्चात ही मिल पाता है। इसके आठ प्रकार बताये गये हैं।

* ब्रह्म विवाह :- वर और कन्या ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपनी शिक्षा पूरी की हो। वे विद्वान और धार्मिक विचारों को मानने वाले हों। व्यवहार कुशल एवं सुशील हों और उनका विवाह आपसी सहमति से हुआ हो।

* देव विवाह :- यज्ञ और ऋत्विक कर्म करते हुए कन्यादान करना, देव विवाह कहलाता है।

* आर्य विवाह :- वर पक्ष से कुछ धन आदि लेकर कन्या का विवाह करना इस श्रेणी के अंतर्गत आता है। कभी-कभी इसका रूप विकृत हो जाता है, जब कन्या का पिता अपने स्वार्थ के लिये अपनी कन्या को बेच देता है। अनेकों जनजातियों में यह प्रथा प्राचीनकाल से चली आ रही है।

* प्राजापत्य विवाह :- इसमें विवाह बुद्धि व धर्म के अनुसार होता है। वर-वधू एक दूसरे के लिये आयु, रूप, गुण आदि में एक दूसरे के लिये सर्वथा उपयुक्त होते हैं। ऐसे विवाह ज्यादातर सफल होते हैं।

* असुर विवाह :- इस प्रकार के विवाह में आपसी सहमति से, एक दूसरे से लेन-देन होता है। आज के युग में जिसे दहेज कहा जाता है। दहेज की विभीषिका को आज सभी जानते हैं।

* राक्षस विवाह :- बलपूर्वक, लड़-झगड़ कर या हर कर कन्या से विवाह करना राक्षस विवाह कहलाता है। प्राचीन काल में भी इसकी स्वीकृति नहीं थी। आज तो यह कानूनी अपराध की श्रेणी में आता है।

*गंधर्व विवाह :- अनियम, असमय, परिस्थितिवश वर-कन्या का संयोग होना गंधर्व विवाह कहलाता है। प्राचीन काल में इसे कुछ हद तक सामाजिक मान्यता प्राप्त थी। आज भी ऐसे विवाह बहुतायद से होते हैं पर ऐसा करने वाले कुछ ही लोग समाज के सामने इसे स्वीकारने की हिम्मत दर्शा पाते हैं।

* पैशाच विवाह :- नशे में चूर, पागल या सोती हुई कन्या के साथ बलपूर्वक या उसकी अनभिज्ञता से संबंध स्थापित करना पैशाच विवाह कहलाता है। वैसे इसे विवाह नहीं व्यभिचार का नाम दिया जा सकता है।

इन आठों प्रकारों में ब्रह्म विवाह सर्वोत्तम, देव एवं प्राजापत्य मध्यम, आर्य, असुर व गंधर्व निम्न तथा राक्षस और पैशाच विवाहों को भ्रष्ट श्रेणियों में माना जाता है।

बुधवार, 17 दिसंबर 2008

एक बिमारी, जिसे कोई बिमारी ही नहीं मानता

यह घातक तो नहीं पर तकलीफदेह जरूर है। कुछ लोग तो इसे बिमारी ही नहीं मानते। जी हां जुकाम, जिसके लिये यदि डाक्टर के पास जायें तो यह तीन दिन में ठीक हो जायेगा। पर यदि कुछ ना भी करें तो तो यह 72 घंटे में ठीक हो जाता है। आप कहेंगें कि यह क्या बात हुई, पर यह सच है कि थोड़े से विश्राम और कुछ घरेलू नुस्खे आजमा लें तो बिना दवाई के भी जुकाम से मुक्ति पायी जा सकती है। वैसे यह बात भी है कि जुकाम के लिये अभी तक कोई कारगर या रामबाण दवा इजाद नहीं हो पायी है।
इसके समान्य लक्षण इस तरह के हैं -
गले में हलकी सी खराश।
बेचैनी, अस्वस्थता महसूस होना, तनाव, आलस्य आदि।
नाक का बंद होना, गले में जकड़न या सूखापन।
पाचन का बिगड़ना।
इसका सबसे अच्छा इलाज है, शरीर को विश्राम देना। इससे इसके किटाणू खुद ब खुद शिथिल पड़ जाते हैं। इसके लिये रोजमर्रा के काम में कमी करें, काम करते-करते बीच में आराम करें, चलते समय शरीर को ढीला छोड़ दें। पेय पदार्थ खासकर फलों का रस अतिरिक्त मात्रा में लें। ये शरीर में रोग-प्रतिरोधी तत्वों को बढाने में सहायक होते हैं। शाम को हल्का भोजन लें तथा जल्दी सोने चले जायें। इसे दूर करने के लिये गोलियां या दवायें लाभ कम और हानि अधिक पहुंचाती है। इसके बदले घरेलू इलाज ज्यादा करगर होते हैं।
इसके लिये गर्म पानी में नींबू का रस और एक चम्मच शहद काफी राहत दिलाता है।
गले की खराश, नाक तथा मांसपेशियों के लिये अदरक मिला गर्म दूध लिया जा सकता है।
काड लिवर आयल का दिन में दो-तीन बार सेवन या लहसुन की कली को निगलने से भी आराम मिलता है।
विश्लेषणों से पाया गया है कि ये सारे पेय गले के 'म्यूकोसल' उतकों में रक्त संचार को बढाते हैं तथा गले की क्षारियता को स्वस्थ अम्लिय स्थिति में बदल कर खराश, जकड़न आदि को दूर करते हैं। जुकाम में शरीर में विटामिन ए की कमी हो जाती है, जिसे दूर करने में काड लिवर आयल बहुत लाभदायक होता है। इसमें विटामिन डी भी होता है जो हमें सूर्य किरणों से मिलता है, लेकिन जाड़ों में लोग ठंड से बचने के लिये ज्यादातर घरों में बंद रहते हैं। जिससे विटामिन डी की कमी हो जाती है। इसीलिये जुकाम अधिकतर जाड़ों में ही होता है। जुकाम में विटामिन सी की भी अहम भूमिका होती है। इसलिये जब जुकाम आता दिखे तब इसकी मात्रा बढा देनी चाहिये। यह हमें नीबूं या आंवले में प्रचूर मात्रा में मिल जाता है।
इस तरह उपयुक्त विश्राम और विटामिनों से शरीर की प्रतिरोधी क्षमता बढा कर जुकाम से मुक्ति पायी जा सकती है।

रविवार, 14 दिसंबर 2008

तनाव मुक्ति के अचूक नुस्खे

कहने और होने में बहुत फर्क होता है। सभी जानते हैं कि तनाव सेहत के लिए ठीक नहीं होता, पर कोई क्या इसे जान-बूझ कर पालता है ? फिर भी कोशिश तो की जा सकती है इसे कम करने के लिये। क्या ख्याल है? कोशिश करने में क्या बुराई है। मेरे एक डाक्टर मित्र ने मुझे तनाव मुक्त होने के पांच गुर बताये हैं। आप भी आजमायें। फायदा ज्यादा नुक्सान कुछ नहीं।
1 :- तनाव में सांस की प्रक्रिया आधी रह जाती है। इसलिये दिमाग में आक्सीजन की कमी को दूर करने के लिये गहरी सांस लें।
2 :- तनाव के क्षणों में चेहरा सामान्य बनाए रखें। क्योंकि स्नायुतंत्रं की जकड़न से शरीर पर बुरा असर पड़ता है। थोड़ा मुस्कुराने की चेष्टा करें। भृकुटि तनने से 72 मांसपेशियों को काम करना पड़ता है। मुस्कुराने में सिर्फ 14 को। ऐसा करने से मष्तिष्क में रक्त संचार बढ़ता है। इसलिये ना चाहते हुए भी मुस्कुरायें। (मुन्ना भाई फिल्म का डीन याद आया?)
3 :- सर्वे में देखा गया है कि तनाव में शरीर खिंच जाता है, भृकुटि तन जाती है, गाल पर रेखायें खिंच जाती हैं। तनाव ग्रस्त इंसान कंधे झुका, सीने-गर्दन को अकड़ा, माथे पर हाथ रख, गुमसुम हो जाता है। इससे रक्त संचरण कम हो जाता है तथा तनाव और बढ़ जाता है। इससे बचने के लिये, करवट बदलिये, बैठने का ढ़ंग बदलिये। खड़े हैं तो बैठ जायें, बैठे हैं तो खड़े हो जायें या लेट जायें। कमर सीधी रखें। पेट को ढ़ीला छोड़ दें, आराम से सांस लें। इतने से ही राहत का एहसास होने लगेगा।
4 :- तनाव में अनजाने में ही जबड़े, गर्दन, कंधे और पेट की मांसपेशियों में खिंचाव आ जाता है जिससे शरीर में जकड़न आ जाती है। हर मनुष्य की यह जकड़न, गठान अलग-अलग होती है। इसे सामान्य रखने की कोशिश करनी चाहिये।
5 :- तनाव के क्षणों में कोई भी काम करने से पहले थोड़ा रुकें। क्या हो रहा है, इस पर थोड़ा सोचें। जल्दि या हड़बड़ी में निर्णय लेने से तनाव बढ़ सकता है। सबसे बड़ी बात, सकारात्मक सोच ही तनाव से मुक्ति दिलाने के लिये काफी है।
यह तो रही डाक्टर की सलाह। लगे हाथ मेरी भी सुन लें। आजमाया हुआ नुस्खा है। बचकाना पन भूल कर कार्टून देखें, समय हो तो कोई हास्य फिल्म, पूरी ना सही उसका कुछ ही हिस्सा देख लें। नहीं तो यह चुटकुला तो है ही। पंजाबी में लयबद्ध रूप में है, हिंदी में पढ़वाता हूं, पूराना है पर असरकारक है _____
बंता के घर रात को अनचाहा मेहमान आ गया। पति-पत्नि ने उसे भगाने की एक तरकीब निकाली। मेहमान को बाहर बैठा दोनों अंदर कमरे में जा जोर-जोर से लड़ने लगे। फिर पत्नि के पिटने और उसके जोर-जोर से चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। इसे सुन मेहमान उठ कर घर के बाहर चला गया। बंता ने झांक कर देखा तो मेहमान नदारद था। उसने पत्नि से कहा, देखा मेरा कारनामा, मैने खटिये को इतना पीटा, तुम्हें छुआ भी नहीं। पत्नि भी कहां कम थी बोली, मैं भी गला फाड़ कर चिल्लाई, रोई मैं भी नहीं। इतने में मेहमान ने कमरे में आते हुए कहा, मैं भी ऐसे ही बाहर बैठा था, गया मैं भी नहीं।

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

एक गांव, जहां रहने पर अंधा होना पड़ता है।

एक ऐसा गांव जहां का हर निवासी दृष्टिहीन है। काफी पहले इस गांव के बारे में पढा था। पर विश्वास नही होता कि आज के युग में भी क्या ऐसा संभव है। इसीलिये सब से निवेदन है कि इस बारे में यदि और जानकारी हो तो बतायें।
इस गांव का नाम है 'टुलप्टिक। जो मेक्सिको के समुद्री इलाके में आबाद है। यहां हज़ार के आस-पास की आबादी है। यहां पैदा होने वाला बच्चा कुदरती तौर पर स्वस्थ होता है पर कुछ ही महीनों में उसे दिखना बंद हो जाता है। ऐसा सिर्फ मनुष्यों के साथ ही नहीं है यहां का हर जीव-जन्तु अंधा है। पर यह अंधत्व भी उनके जीवन की रवानी में अवरोध उत्पन्न नहीं कर सका है।
गांव में एक ही सड़क के किनारे सब की खिड़की-दरवाजों रहित झोंपड़ियां खड़ी हैं। सुबह जंगल के पशु-पक्षियों की आवाजें उन्हें जगाती हैं। पुरुष खेतों में काम करते हैं और महिलायें घर-बार संभालना शुरु करती हैं। बच्चे भी इकठ्ठे हो कर खेलते हैं। शाम को दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद पुरुष एकसाथ मिल बैठ कर अपनी समस्यायें सुलझाते हैं। यानी आम गांवों की तरह चौपाल जमती है। इनका भोजन सिर्फ सेम, फल और मक्का है। इनके उपकरण भी पत्थर और लकडी के बने हुए हैं तथा इनका बिस्तर भी पत्थर का ही होता है।
1927 में मेक्सिको के विख्यात समाजशास्त्री डाक्टर ग्यारडो ने इस रहस्य का पर्दा उठाने के लिए वहां रहने का निश्चय किया। परन्तु 15-20 दिनों के बाद ही उन्हें अपनी आंखों में तकलीफ का आभास होने लगा और वे वहां से चले आये।
काफी खोज-बीन के बाद विज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस भयानक रोग का कारण "इनकरस्पास" नाम का एक किटाणु है और इसको फैलाने का काम वहां पायी जाने वाली एक खास तरह की मधुमक्खियां करती हैं।
अब सवाल यह उठता है कि ऐसा क्या लगाव या जुड़ाव है उन लोगों का उस जगह से जो इतना कष्ट सहने के बावजूद वे वहीं रह रहे हैं। सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि कैसे वे अपना निर्वाह करते होंगे। या तो यह बिमारी धीरे-धीरे पनपी होगी, नहीं तो काम-काज कैसे सीख पाये होंगे। घर, सड़क, खेत आदि कैसे बने होंगे। सैंकड़ों प्रश्न मुंह बाये खड़े हैं। फिर अंधेपन के हजार दुश्मन होते हैं उनसे कैसे अपनी रक्षा कर पाते होंगे। वहां की सरकार भी क्यों नहीं कोई कदम उठाती उन्हें इस त्रासदी से छुटकारा दिलाने के लिए।
यह जानकारी पूरानी है। इसीलिये मेरी फिर एक बार गुजारिश है कि इस बारे में कोई नवीनतम जानकारी हो तो अवश्य बतायें।

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

जिन्हें पशुओं ने पाला

कोई पचास साल पहले की घटना होगी। लखनऊ स्टेशन की बात है। एक आठ-दस साल का लड़का अपने चारों हाथ-पैरों पर चलता हुआ, ड़रा-ड़रा, सहमा सा, कहीं से आकर एक रेल के डिब्बे में दुबक कर बैठ गया। उससे बात करने पर वह भेड़ियों की तरह की आवाज निकालता था। उसके शरीर के बाल तथा हाथ के पंजे भी जानवारों की तरह के थे। उसका सारा बदन भी खरोंचों से भरा हुआ था जैसे कि जंगल में झाड़ियों वगैरह में दौड़ता भागता रहा हो। उसके विषय में काफी खोज-बीन के बाद यह अंदाज लगाया गया कि वह बचपन से ही भेड़ियों के बीच रहता आया होगा। बाद में उसको धीरे-धीरे मनुष्यों की तरह का व्यवहार सिखाया गया और वह उसके बाद करीब 14-15 साल तक जीवित रहा। उसका नाम रामू रखा गया था। 

सन 1971 में रोम में एक पांच साल का बच्चा पाया गया था, जो चारों हाथ-पैरों से भड़ियों की तरह चलता था और वैसा ही व्यवहार करता था। विशेषज्ञों ने इसे उसका जानवरों के बीच हुए लालन-पालन को कारण माना।

इसी तरह का एक दस-बारह साल का बालक श्रीलंका के जंगलों में पाया गया था। वह भी चारों हाथ-पैरों की सहायता से चलता था और कुत्ते की तरह भोंकता था।

दूसरे विश्व युद्ध के पहले ग्रीस में माउंट ओलिम्पस पर एक 8-9 वर्ष की बालिका एक मरे हुए भालू के पास मिली। खोज करने पर पता चला कि वह पास के गांव से गायब हो गयी थी। उसका भरण-पोषण वह भालू ही करता रहा था।

एक घटना रूस के अजरबैज़ान इलाके के इरांगेल गांव की है। वहां की एक तीन-चार साल की बच्ची आंधी तूफान से भरी बर्फानी रात में अपने मां-बाप से बिछुड़ गयी थी। उस भूली भटकी बच्ची को एक भेड़िये ने शरण दी। उसने रात भर उस बच्ची को अपनी गोद में रख ठंड से उसकी रक्षा की। अगले दिन जब गांव वालों ने उसे ढ़ूंढ़ निकाला तो उसने बताया कि रात भर एक भेड़िया उसे चाटता रहा था। इसीसे बच्ची के शरीर में गर्मी बनी रह पायी थी।

इसी तरह एक बच्चे को बंदर उठा कर ले गये थे। कुछ वर्षों पश्चात जब वह मिला तो उसकी हरकतें भी बंदरों जैसी हो गयी थीं।

अभी भी कई बार अखबारों या टी.वी. वगैरह में पढ़ने-देखने में आ जाता है, कि विभिन्न नस्ल या जाति के जानवर ने दूसरे जानवर के बच्चे को अपना दूध वगैरह पिला कर बचाया। जो कि जानवरों में भी बिना भेद-भाव के ममत्व के होने का जीता जागता प्रमाण है।

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

सुबह जिससे हुई लड़ाई, शाम को उसीने जान बचाई

शायद चौथी या पांचवीं क्लास में था मैं। बात तब की है, जब आज की तरह शिक्षा व्यवसाय का रूप नहीं ले पायी थी जिसकी वजह से गली-गली में कुकुरमुत्तों की तरह स्कूल नहीं खुले हुए थे। इसलिये शिक्षण केन्द्र ज्यादातर घरों से दूर ही होते थे।

पिताजी उन दिनों कलकत्ता के पास कोन्नगर नामक स्थान में लक्ष्मीनारायण जूटमिल में कार्यरत थे। वहां काम करने वाले लोगों में हर प्रांत के लोग थे। पंजाबी, गुजराती, मारवाड़ी, बिहारी, मद्रासी (उन दिनों हर दक्षिणवाले को मद्रासी ही समझा जाता था), हिमाचली, नेपाली और बंगाली तो होने ही थे। पर वहां रहते, काम करते सब अपनी जाति भूल एक परिवार की तरह ही थे, एक-दूसरे की खुशी गम में शरीक होते हुए।

हमारे हिंदी भाषी स्कूल का नाम था रिसड़ा विद्यापीठ, जो रिसड़ा नामक जगह में हमारे घर से करीब पांच एक मील दूर था। हम सात-आठ बच्चे रिक्शों में वहां जाते-आते थे। उस समय के रिक्शे वालों की आत्मियता का जिक्र मैं अपनी एक पोस्ट शिबू रिक्शे वाला में कर चुका हूं। रिक्शे वाले समय के पाबंद हुआ करते थे।

जिस दिन का जिक्र कर रहा हूं , उस दिन स्कूल जाते हुए अपने एक सहपाठी हरजीत के साथ मेरी किसी बात पर अनबन हो गयी थी। कारण तो अब याद नहीं पर हम दोनों दिन भर एक दूसरे से मुंह फुलाये रहे थे। उस दिन किसी कारणवश स्कूल में जल्दी छुटटी हो गयी थी। आस-पास के तथा बड़े लड़के-लड़कियां तो चले गये। पर हमारे रिक्शेवालों ने तो अपने समय पर ही आना था, सो हम वहीं धमा-चौकड़ी मचाते रहे। स्कूल से लगा हुआ एक बागीचा और तलाब भी था। खेलते-खेलते ही सब कागज की नावें बना पानी में छोड़ने लग गये। तालाब का पानी तो ठहरा हुआ होता है सो नावें भी भरसक प्रयास के बावजूद किनारे पर ही मंडरा रही थीं। हम जहां खेल रहे थे वहां से कुछ हट कर एक पेड़ पानी में गिरा पड़ा था। उसका आधा तना पानी में और आधा जमीन पर था। अपनी नाव को औरों से आगे रखने की चाह में मैं उस तने पर चल, पानी के ऊपर पहुंच गया। वहां जा अभी अपनी कागजी नाव को पानी में छोड़ भी नहीं पाया था कि तने पर पानी के संयोग से उगी काई के कारण मेरा पैर फिसला और मैं पानी में जा पड़ा । पानी मेरे कद के हिसाब से ज्यादा था। पैर तले में नहीं लग पा रहे थे। मेरे लाख हाथ पांव मारने के बावजूद काई के कारण तना पकड़ में नहीं आ रहा था। उधर सारे जने अपने-अपने में मस्त थे पर पता नहीं कैसे हरजीत का ध्यान मेरी तरफ हुआ, वह तुरंत दौड़ा और तने पर आ अपने दोनों पैरों से तने को जकड़ अपना हाथ मेरी ओर बढा मुझे किनारे तक खींच लिया। मैं सिर से पांव तक तरबतर ड़र और ठंड से कांप रहा था। पलक झपकते ही क्या से क्या हो गया था। सारे बच्चे और स्कूल का स्टाफ मुझे घेरे खड़े थे। कोई रुमाल से मेरा सर सुखा रहा था, कोई मेरे कपड़े, जूते, मौजे सुखाने की जुगत में था। और हम सब इस घटना से उतने विचलित नहीं थे जितना घर जा कर ड़ांट का ड़र था। पर एक बात आज भी याद है कि मैं और हरजीत ने तब तक आपस में बात नहीं करी थी सिर्फ छिपी नज़रों से एक दूसरे को देख लेते थे। पता नहीं क्या भाव थे दोनों की आंखों में।

कुछ ही देर में रिक्शेवाले भी आ गये। हम सब घर पहुंचे, पर हमसे भी पहले पहुंच चुकी थी मेरी ड़ुबकी की खबर। और यह अच्छा ही रहा माहौल में गुस्सा नहीं चिंता थी, जिसने हमें ड़ांट फटकार से बचा लिया था। एक बात और अच्छी हुई कि इस घटना के बाद मेरी किसी से भी लड़ाई नहीं हुई, कभी भी।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2008

छाया ग्रह केतु, ग्रहों की कहानी------ ९

समुद्रमंथन के समय छल से अमृतपान करने के कारण भगवान विष्णु के चक्र से कटने पर सिर राहु तथा धड़ केतु कहलाया। केतु राहु का ही कबन्ध है। राहु के साथ ही केतु भी ग्रह बन गया। पुराणों के अनुसार केतु बहुत से हैं। जिनमें धूमकेतु प्रधान है। यह छाया ग्रह है। व्यक्ति के जीवन के साथ-साथ यह समस्त सृष्टि को भी प्रभावित करता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार यह राहु की अपेक्षा सौम्य होता है और विशेष परिस्थितियों में यह व्यक्ति को यश के शिखर पर पहुंचा देता है। इसका मंडल ध्वजाकार माना जाता है। इसका वर्ण धूएं के समान है तथा मुख विकृत है। इसके दो हाथ हैं। एक हाथ में गदा तथा दूसरा वरमुद्रा धारण किये रहता है। इसका वाहन गीध है। कहीं-कहीं ये कपोत पर आसीन भी दिखाया जाता है। केतु की महादशा सात साल की होती है। किसी व्यक्ति की कुंडली में अशुभ स्थान पर रहने पर यह अनिष्टकारी हो जाता है। ऐसे केतु का प्रभाव व्यक्ति को रोगी बना देता है। केतु का सामान्य मंत्र :- “ऊँ कें केतवे नम:” है। इसका नित्य एक निश्चित संख्या में श्रद्धापूर्वक जाप करना चाहिये। जाप का समय रात्रि-काल है।
* केतु के साथ ही नवग्रहों की सक्षिंप्त जानकारी पूर्ण होती है। नवग्रहों का पुराणों में कैसा चित्रण है, उसकी यह एक हल्की सी झलक थी। कोई विद्वतापूर्ण लेख नहीं था। किसी भी तरह के पूजा-पाठ, हवन, जप वगैरह को विद्वानों के मार्ग-दर्शन में ही आरंभ और पूरा करना चाहिये।

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

दानव से ग्रह बना 'राहु'. ग्रहों की कहानी :- ८

समुद्र मंथन के बाद जब भगवान विष्णु मोहिनी रूप में देवताओं को अमृत पिला रहे थे, उसी समय राहु देवताओं का भेष बना कर उनके बीच आ बैठा। पर उसको सूर्य और चन्द्रमा ने पहचान लिया और उसकी पोल खोल दी। तत्क्षण विष्णु भगवान ने सुदर्शन चक्र द्वारा उसकी गरदन काट डाली। पर तब तक उसने अमृत का घूंट भर लिया था, जिसके संसर्ग से वह अमर हो गया। शरीर के दो टुकड़े हो जाने पर सिर राहु कहलाया और धड़ केतु के नाम से जाना जाने लगा। ब्रह्माजी ने उन्हें ग्रह बना दिया।राहु का मुख भयंकर है। ये सिर पर मुकुट, गले में माला तथा काले रंग के वस्त्र धारण करता है। इसके हाथों में क्रमश:- तलवार, ढ़ाल, त्रिशुल और वरमुद्रा है। इसका वाहन सिंह है। राहु ग्रह मंडलाकार होता है। ग्रहों के साथ ये भी ब्रह्माजी की सभा में बैठता है। पृथ्वी की छाया भी मंडलाकार होती है। राहु इसी छाया का भ्रमण करता है। ग्रह बनने के बाद भी वैर-भाव से राहु पुर्णिमा को चन्द्रमा और अमावस्या को सूर्य पर आक्रमण करता रहता है। इसे ही ग्रहण कहते हैं। इसका रथ अंधकार रूप है। इसे कवच से सजे काले रंग के आठ घोड़े खींचते हैं। इसकी महादशा 18 वर्ष की होती है। कुछ अपवादों को छोड़ कर यह क्लेशकारी ही सिद्ध होता है। यदि कुण्ड़ली में इसकी स्थिति प्रतिकूल या अशुभ हो तो यह शारीरिक व्याधियों, कार्यसिद्धी में बाधा तथा दुर्घटनाओं का कारण बनता है। इसकी शांति के लिए महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना श्रेयस्कर होता है।
इसका सामान्य मंत्र है :- “ ऊँ रां राहवे नम:”
इसका एक निश्चित संख्या में नित्य जप करना चाहिये। जप का समय रात्रिकाल है।
* अगला ग्रह :- केतु

मंगलवार, 2 दिसंबर 2008

आप तो जानते हैं इन नेताओं को

बहुत सारे नेताओं को ले जाती एक लग्जरी बस का एक गांव के पास एक्सीडेंट हो गया। मौका-ए-वारदात पर पुलिस के पहुंचते-पहुंचते ग्रामिणों ने सब को दफना दिया था। तहकिकात करते हुए जब इंस्पेक्टर ने गांव वालों से पूछा - क्यों भाई कोई भी जिंदा नहीं बचा था क्या? तो एक गांव वाला बोला, कुछ लोग बोल तो रहे थे कि हम जिंदा हैं। पर सरकार आप तो जानते ही हो कि ये नेता लोग कितना झूठ बोलते हैं। सो---------------------

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

दैत्यगुरु शुक्राचार्य, ग्रहों की कहानी :- 7

शुक्राचार्य दानवों के गुरु और पुरोहित हैं। ये योग के आचार्य भी हैं। इन्होंने असुरों के कल्याण के लिए ऐसे कठोर व्रत का अनुष्ठान किया था जैसा फिर कोई नहीं कर पाया। इस व्रत से देवाधिदेव शंकर भगवान प्रसन्न हुये और उन्होंने इन्हें वरदान स्वरूप मृतसंजीवनी विद्या प्रदान की। जिससे देवताओं के साथ युद्ध में मारे गये दानवों को फिर जिला देना संभव हो गया था। प्रभू ने इन्हें धन का अध्यक्ष भी बना दिया, जिससे शुक्राचार् इस लोक और परलोक की सारी सम्पत्तियों के साथ-साथ औषधियों, मन्त्रों तथा रसों के भी स्वामी बन गये।
ब्रह्माजी की प्रेरणा से शुक्राचार्य ग्रह बन कर तीनों लोकों के प्राणों की रक्षा करने लग गये। लोकों के लिये ये अनुकूल ग्रह हैं। वर्षा रोकने वाले ग्रहों को ये शांत कर देते हैं। इनका वर्ण श्वेत है तथा ये श्वेत कमल पर विराजमान हैं। इनके चारों हाथों में – दण्ड, रुद्राक्ष की माला, पात्र तथा वरदमुद्रा सुशोभित रहती है। इनका वाहन रथ है जिसमें अग्नि के समान आठ घोड़े जुते रहते हैं। रथ पर ध्वजायें फहराती रहती हैं। इनका आयुध दण्ड है। ये वृष तथा तुला रशि के स्वामी हैं । इनकी महादशा बीस साल की होती है।
इनका सामान्य मंत्र है :- “ ऊँ शुं शुक्राय नम:”। जप का समय सूर्योदय काल है। अनुष्ठान किसी विद्वान के सहयोग से ही करना चाहिये।

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